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पश्चात्ताप
एकसमीक्षात्मक अध्ययन
पश्चात्ताप: एक समीक्षात्मक अध्ययन
अपनी अमिट छाप छोड़ता दिखाई देता है। रस, छन्द, अलंकार सभी का सहज संयोग रचना में दृष्टिगोचर हुआ है। राजा रामचन्द्रजी द्वारा सीताजी के परित्याग के उपरान्त जिसप्रकार पश्चात्ताप के भाव उनके मन में आते हैं, वे हृदय को झकझोर देते हैं। सहज भावाभिव्यक्ति लेखनी का कमाल है। रचना यह सिद्ध करने में सफल है कि डॉ. भारिल्ल का गद्य और पद्य दोनों में समान अधिकार है।
- अखिल बंसल एम.ए., डिप्लोमा-पत्रकारिता, सम्पादक : समन्वयवाणी
स्टेशन रोड़, दुर्गापुरा, जयपुर - ३०२०१८ पावन सन्देश और मार्गदर्शन आध्यात्मजगत के महान चिन्तक, स्वात्मा के सतत अन्वेषक, दार्शनिक विद्वान डॉ. श्री हुकमचन्दजी भारिल्ल ने प्रस्तुत रचना लिखकर जगत के भोले भव्य प्राणियों को जो पावन सन्देश और मार्गदर्शन दिया है; उसके लिये उनके प्रति मेरी भावना के कुछ प्रसून -
सागर है हर बोल तुम्हारा, रोम रोम बन रहा दिबाकर । मुट्ठीभर माँटी काया में, लहरा रहा बोध रत्नाकर ।। जगती को सन्देश सुनाते, महावीर का तुम गा-गाकर । तुम आये शीतल समीर से, जग में इस संतप्त धरा पर ।। जीर्ण शीर्ण कोमल काया में, बैठा शाश्वत रूप तुम्हारा । क्षण-क्षण मोह तोड़ते जग से, चिन्तन सारे जग से न्यारा ।। शब्द मंत्र से बहा रहे हो, जनकल्याणी अमृतधारा। खुद तरने का भाव तुम्हारा, तारणहारा लक्ष्य तुम्हारा ।।
- गोकुलचन्द सरोज
ललितपुर
पश्चात्ताप डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल द्वारा अल्पायु में विरचित काव्य है। इसमें कथाभाग न के बराबर है। कथानक का आधार जैनाचार्य रविषेण के पद्मपुराण का वह अंश है कि जिसमें रामचन्द्र सीता के द्वितीय वनवास के उपरान्त उसकी अग्निपरीक्षा लेते हैं। अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने के पश्चात् से ही बात आरंभ होती है; जिसका संकेत छठवें छन्द की प्रथम पंक्ति 'हो गई अग्निपरीक्षा आज' से मिल जाता है।
अग्निपरीक्षा के उपरान्त संसारस्वरूप को जानकर सीता का दीक्षा लेना और श्रीराम को अपनी गलती का अहसास होना ही काव्य का मूलाधार है।
सीताजी के दीक्षा के उपरान्त इस काव्य का घटनाक्रम या कथा भाग घंटे-दो-घंटे में ही समाप्त हो जाता है; जिसमें आन्दोलित राम का विलाप कम और पश्चात्ताप अधिक अभिव्यक्त हआ है। वैसे तो अग्निपरीक्षा के सन्दर्भ में विभिन्न रामकथाओं में विभिन्न मत प्रगट हुये हैं; परन्तु यह काव्य रचना का रविषेणीय पद्मपुराण के आधार पर रची होने से हमें उसी के आलोक में विचार करना चाहिये।
इसमें घटनाएँ हैं भी और नहीं भी। जो दिखाई देती हैं, वह साक्षात् नहीं, वरन पूर्वदीप्ति या प्रतीकात्मक या विचारात्मक शैली में दिखाई देती हैं। कवि के मन पर सीता के द्वितीय वनवासोपरान्त अग्निपरीक्षा लेने का अमिट प्रभाव पड़ा है।
'पश्चात्ताप' के कवि के चित्त में अनेक प्रश्न हैं, जैसे - क्या सीता की अग्निपरीक्षा उचित थी? क्या किसी गर्भवती स्त्री को अपराधी सिद्ध हये बिना ही निर्वासित किया जा सकता है? क्या नारी का अपना आत्मसम्मान नहीं है या वह केवल पति की अनुचर मात्र है अर्थात् जैसी पति परमेश्वर आज्ञा दें, उसे ज्यों की त्यों शिरोधार्य कर लिया जाए। यदि सीताजी के साथ अन्याय हुआ है तो क्या न्यायाधीश को अपने पद पर बने रहने का अधिकार है?