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पश्चात्ताप
एक समीक्षात्मक अध्ययन
वह जनता भी कैसी है, जिसने अन्यायी को चुना और अन्याय प्रमाणित हो जाने के बाद भी पद पर बने रहने दिया? क्या राम आदर्श पति या पिता कहलाए जाएँगे? जो व्यक्ति अपनी पत्नी के मन को संवेदनशील होकर नहीं समझ सका, क्या वह प्रजा को बेहतर समझ सकेगा?
ऐसेही अनेक प्रश्न लेखक केमन को बार-बार उद्वेलित करते हैं, फलतः 'पश्चात्ताप' जैसे काव्य की रचना हो जाती है। यही सवाल रचना को ५३ वर्ष पूर्व रचित होने पर भी आधुनिक संदर्भो में भी प्रासांगिक बना देते हैं।
(२) कल्पना में पुराणों का समाहार -
पुराण सीमित है; कल्पना असीम है, भावोच्छवास है। इच्छा या कामना में गति है, वह आकाश में दौड़ती है गंतव्य के छोर तक । विराट चित्त सर्वश्रेष्ठ वस्तुओं की रचना कर देता है। कभी लगता है कि - पुराणों में घटनाएँ ठीक-ठीक नहीं आ पाई हैं, कुछ बाकी रह गया है, पुनर्व्याख्येय है - यही व्याकुलता कवि को मुखर बनाती है। विक्षुब्ध हृदयमहोदधि में हजारों प्रश्न उठते हैं। हर उत्तर नए प्रश्न को जन्म दे जाता है। आखिर खोज सुकुमार मन की सुकुमार कल्पना का आश्रय लेती है और कृति का सृजन हो जाता है।
सीता की अग्निपरीक्षा एवं निर्वासन की कहानी बहुत पुरानी है। बाल्मीकि रामायण से लेकर आधुनिक कवियों तक सभी ने उसे अपनेअपने ढंग से कहा; पर डॉ. भारिल्ल की इस रचना का स्वर पूर्व रचनाओं से पूर्णतः भिन्न और नया है।
सामान्यतः राम से जुड़े अनेक ग्रन्थों में सीता की अग्निपरीक्षा का वर्णन विविधता से भरा मिलता है। अधिकांश विद्वानों ने अग्निपरीक्षा को अप्रामाणिक प्रक्षिप्त माना है। इसके कई कारण हैं -
एक तोराम के द्वारा सीता की अग्निपरीक्षा लेना, राम के स्वाभाविक आदर्श चरित्र को खण्डित करता है; जो राम सीता के विरह में व्याकुल होते हैं, अपहरणकर्ता रावण से दिन-रात एक करके युद्ध करते हैं; वही
राम युद्ध के पश्चात् सीता को सहर्ष ग्रहण करने के बाद, अपने पास रखने
और उसके गर्भवती हो जाने के बाद लोकापवाद के भय से निर्वासित कर दें - यह स्वाभाविक नहीं लगता।
दूसरे, राम चरित्र की कथा कहने वाले अधिकांश ग्रंथों में उत्तर काण्ड का विवरण नहीं मिलता और जिन कवि-लेखकों ने वर्णन किया भी है तो चलता सा कर दिया है। उदाहरण के लिए - वैष्णव साहित्य में हरिवंश पुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण, भागवत पुराण, नृसिंह पुराण; बौद्ध साहित्य में अनामकँ जातक, स्याम का रामजातक, खोतानी और तिब्बती रामायण और जैन साहित्य में आचार्य गुणभद्र कृत उत्तर पुराण में अग्नि परीक्षा का निर्देश नहीं मिलता है।
तीसरे, जो वर्णन मिलता है वह विविधता से भरा है। बाल्मीकि रामायण में रावण वध के पश्चात् राम सीता को अपने पास लाने का आदेश देते हैं। जब सीता सम्पूर्ण श्रृंगार कर राम के पास आती हैं तो राम कहते हैं कि मैंने तो अपने शत्रु से प्रतिकार के लिए रावण से युद्ध किया। मुझे तुम्हारे चरित्र पर संदेह है; अतः मुझे तुम्हारे प्रति कोई आकर्षण नहीं रहा, तुम जहाँ चाहो चली जाओ।
इसके बाद लक्ष्मण सीता के लिए चिता तैयार करते हैं और सीता उसमें प्रवेश करती है। तत्पश्चात् अग्नि आदि देवता सीता के चरित्र का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। उत्तर में राम ने कहा कि मुझे सीता के चरित्र में संदेह नहीं था; परन्तु एक तो रावण के यहाँ रहने के कारण इस शुद्धि की
आवश्यकता थी दूसरे, यदि मैं सीता को ऐसे ही ग्रहण कर लेता तो लोग मुझ पर कामी होने का आरोप लगाते । स्पष्ट है कि वाल्मीकि रामायण का यह अंश स्वाभाविक नहीं लगता, अतः प्रक्षिप्त है।
महाभारत के रामोपाख्यान में राम केवल देवताओं के साक्ष्य से ही संतुष्ट हो जाते हैं। इसीप्रकार विमल सूरिकृत पउमचरियं का संस्कृत रूपान्तरण आचार्य रविषेण कृत पद्मचरित या पद्मपुराण है, जिसमें राम और सीता के पुनर्मिलन के समय देवताओं द्वारा पुष्पवृष्टि तथा सीता की।
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