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पश्चात्ताप
मनीषियों की दृष्टि में -
जिज्ञासोत्पादक एवं आकर्षक डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल का काव्य ‘पश्चात्ताप' उनकी किशोरावस्था की विलक्षण प्रतिभा का परिणाम है।
इसका कथानक जिज्ञासोत्पादक एवं आकर्षक है । भाव पक्ष और कला पक्ष की दृष्टि से भी यह उच्चकोटि का काव्य है। सीताजी का मनोवैज्ञानिक चित्रण भी प्रशंसनीय है। - डॉ. लालचन्द जैन अध्यक्ष : जैन चैयर, उत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर - ७५१००९
यह कलम कभी रुके नहीं आप द्वारा सृजित पश्चात्ताप काव्य पढने पर अनभूतियों के आनन्द से सराबोर हो गया। काव्य में आपके विचारों की ऊँचाइयाँ, चिन्तन की गहराइयाँ और लेखन क्षमता का विस्तार आकाश के समान है। विषयों का चयन बड़ा ही सुन्दर है। काव्य में कल्पना सजीव है, शब्दों का चयन सहज ही अर्थ की अभिव्यक्ति करने वाला है। कई पंक्तियाँ तो सीधे-सीधे मर्म को भेदती हैं।
आपकी लेखन शैली उत्कृष्ट है। आपने काव्य में देशज, विदेशज एवं लौकिक शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है, जो हर किसी कलमकार की परिमार्जितता का सूचक है।
यह काव्य जनसामान्य के लिए भी रुचिकारक, सारगर्भित, बोधगम्य और सहज अर्थ प्रकट करने वाला है, सरल भाषा में है। काव्य में भावनायें कोमल, सूक्ष्म, सौन्दर्य वर्णन के साथ प्रकृति चित्रण में नये-नये सार्थक शब्दों के प्रयोग में आप सिद्ध हस्त हैं।
मेरी भावना है कियह कलम कभी भी रुके नहीं। यह कलम कहीं भी झके नहीं।। यह कलम साधना के साधन । अनवरत चले, यह थके नहीं।। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।
- डॉ. पी.सी. जैन ___ निदेशक : जैन अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
एक सन्मार्गदर्शक कृति डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल की नई काव्यकृति ‘पश्चात्ताप' का मनोयोगपूर्वक दो बार आद्योपान्त अध्ययन किया। निश्चय ही कवि ने इसमें अत्यन्त कुशलता के साथ अपनी नीर-क्षीर-विवेक दृष्टि का परिचय देते हुए अपने सहृदय पाठकों को भी न्यायोचित ढंग से गुण को गुण और दोष को दोष समझने की मंगल प्रेरणा दी है।
संस्कृत में सूक्ति है कि 'शत्रोरपि गुणाः वाच्याः दोषाः वाच्याः गुरोरपि' जो एक अपेक्षा से बिल्कुल ठीक भी है। पूर्ण वीतरागता से पहले सभी जीवों में गुण और दोष दोनों पाये जाते हैं। हमें उनको भलीभाँति पहिचान कर गुणों का ही अनुकरण करना चाहिए, दोषों का नहीं।
जिसप्रकार गुण; गुण ही होते हैं, उपादेय ही होते हैं, चाहे वह छोटे आदमी में ही क्यों न हों; उसीप्रकार दोष दोष ही होते हैं, चाहे वह किसी महापुरुष में ही क्यों न पाये गये हों और दोष सर्वथा त्याज्य ही होते हैं, प्रशंसनीय नहीं, अनुकरणीय भी नहीं - यह हमें अत्यन्त स्पष्टता से समझ लेना चाहिए।
डॉ. भारिल्ल की ‘पश्चात्ताप' नामक यह कृति जीवन के इस महत्त्वपूर्ण पक्ष को बड़ी ही सुन्दर शैली में, स्वयं राम के मुख से ही अपनी गलती कहलाकर, प्रस्तुत करती है। मुझे विश्वास है कि इससे बहुत लोगों का सन्मार्गदर्शन होगा।
किशोरावस्था में लिखी गई इतनी सुन्दर काव्यकृति कविवर डॉ. भारिल्ल के जन्मजात महनीय व्यक्तित्व को भी उजागर करती है।
- डॉ. वीरसागर जैन अध्यक्ष : जैनदर्शन विभाग, श्री लालबहादुर शास्त्री
राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली।