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पर से कुछ भी संबंध नहीं उत्पाउत्तस्यय कीर्मपक्केम्पसामपुरुषार्थ कामियामकास्तित्कायें, यात्माम्य बतायोकेलिहोनहारको नियामकाचं उल्लेखम्त्यै। अधतिकोनिष्पापहोन्याय कादअन्मेक्षमात्र कालवकहानियोमकै, अस्तित्व का नहीं।
सल्लाकार जल्याउपादानास्वाहयनहीं चैक्सिमेलोच सखास रहोतेजानेतये वरवध्यालय अमुकूल पेट्रोल को निमित्त कारण कहा जाता है। जब पेट्रोल समाउत्तरे जाता हेतलोअकेलहीपेट्रोलिहीक्समेक्सि वस्तुतस्वकालोमहीनाही बैस्कियोकभीलोहातो झेलफरेजी कहतली, यहोजियमारसिम्बट्रोस्कोखत्में
पर्जयकिश्वकीजिड़ाहक मझवया की होग्यता हटेवहौर सी समस्तु बच्चझामीकासी मामौत जहामहेदर क्याफिक्स्सुस्वलक्ष्य के वरती बानमा समध्यत्तिमित रूप में पेट्रोल की अवस्था भी अपने स्वतंत्र स्वचतुष्टय से, तत्सम्मश्नी प्रेग्युत्यो घुम्बकी हुँइक्कों में रहने वाचं ऊँद-बूँद जलने की होती है - उत्सर हीलाहक्क इत्य का अपमाल हिमित जैमिनिक विज्ञपहानका है। ऐसा ही वस्तं का.स्वरूप है। स्वर्भाव एव तत्समय योग्यता से चुम्बक की ओर खिंचती है और चुम्बक भी अपनोझे कषेचज्ञाक्ते का किया अपने पेट्रोल नहीं होनी मोहित एकी अपून सहजव्यक्तिका कुत्ता तीनकाल में कभी भी हो ही नहीं
कार में दानी भी यही नहीं सखा इसलिए यह मानना सही नहीं है कि पेट्रोल समाप्त हो गया, इस कारण
और खिचने का कार्य सहजता से होता है। मोटर रुक गई।
अरे भाई ! एक कार्य के होने में अनेक कारण होते हैं, पेट्रोल भी उनमें एक निमित्त रूप कारण है, जो वस्तुत: परद्रव्य होने से अकिंचित्कर
अंतरंग कारण से कर्म (कार्य) की उत्पत्ति नैमित्तिक कार्य है; परन्तु दूसरी परिभाषा यह भी है कि जिस कार्य के सम्पन्न होने में निमित्त ( परवस्तु) का संयोग संबंध हो, वह नैमित्तिक है। जब नैमित्तिक ( कार्य ) होता है, तब निमित्त भी अवश्यमेव होता ही है, इतने संबंध मात्र से उस कार्य को नैमित्तिक नाम दिया गया है।
यदि निमित्त नैमित्तिक में कुछ करे तो फिर उनमें निमित्त-नैमित्तिक संबंध न होकर कर्ता-कर्म संबंध ठहरेगा, जो भिन्न-भिन्न द्रव्यों में असंभव है।
जब उपादान में कार्य होता है, तब निमित्त भी अवश्य होता ही है; परन्तु दोनों स्वतंत्र होते हैं। एक को दूसरे की पराधीनता नहीं है। इसप्रकार आत्मा को अपने कार्य में पर की अपेक्षा नहीं है।
प्रश्न ४४ : यदि आत्मा को घट-पट आदि परद्रव्य का तथा क्रोधादिद्रव्य कर्मों का कर्ता माने तो क्या दोष हैं ?
उत्तर : आत्मा घट-पट आदि का और क्रोधादि द्रव्य कर्मों का व्याप्यव्यापक भाव से तो कर्ता है ही नहीं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो घट-पट एवं क्रोधादि से आत्मा को तन्मय होना पड़े; क्योंकि दो पृथक् द्रव्यों में तो व्याप्यव्यापकपना होता ही नहीं है।
आत्मा निमित्त-नैमित्तिक भाव से भी परद्रव्य को एवं क्रोधादि को नहीं करता; क्योंकि यदि ऐसा करे तो निमित्त की सदैव उपस्थिति के कारण नित्य कर्तृत्व का प्रसंग प्राप्त होगा। ___ आत्मप्रदेशों में कम्पन रूप योग और इच्छा (उपयोग) परवस्तु की अवस्था होने में निमित्त होते हैं किन्तु ज्ञानी योग और इच्छा के भी कर्ता नही है, इसलिए ज्ञानी परवस्तु की अवस्था के निमित्तरूप से भी कर्ता नहीं। 0
प्रत्येक कार्य के होने में पाँच कारण होते हैं - १. स्वभाव २. पुरुषार्थ ३. भवितव्य (होनहार) ४. काल ५. निमित्त ।
मोटर ध्रुव उपादान है, उसका स्वभाव स्वयं अपने आप में गतिशील है। गमनरूप कार्य में उसकी गतिशीलता स्वभाव का नियामक है। गमनरूप कार्य की अनन्तरपूर्वक्षणवर्ती पर्यायों का शिलशिला अर्थात्