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कार्य की निष्पत्रता में निमित्तों का स्थान अहंभावना, ८. अनादिकालीन परपदार्थों में कर्तृत्वबुद्धि आदि भी भ्रम उत्पन्न करते हैं, ९. जो निमित्त उपादान के पूर्वचर, उत्तरचर एवं सहचर होते हैं, उन निमित्तों में भी सहज ही कर्त्तापन का भ्रम हो जाता है।
प्रश्न २७ : निमित्तों में कर्त्तापन के भ्रम को मेटने का मुख्य उपाय क्या
पर से कुछ भी संबंध नहीं बुलाये आकाश से उतर आये।
२. तीर्थंकर भगवान महावीर जैसे समर्थ निमित्त के होते हुए मंखलि गोसाल का कल्याण नहीं होना था सो ६२ दिन तक भगवान महावीर की दिव्यध्वनि की प्रतीक्षा करने के बावजूद भी जब दिव्यध्वनि खिरने का काल आया तभी क्रोधित होकर वहाँ से चला गया।
३. नरकों में वेदना व जातिस्मरण को भी सम्यग्दर्शन का निमित्त कह दिया है। इससे सिद्ध होता है कि निमित्त कर्ता नहीं है; क्योंकि वेदना तो सबको होती है, फिर सम्यग्दर्शन सबको क्यों नहीं होता ?
४. केवली का पादमूल तो बहुतों को मिला, पर सबको क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हुआ।
५. शील के प्रभाव से यदि अग्नि का जल हो जाने का नियम हो तो पाण्डवों के शील की क्या कमी थी? उनके तो अठारह हजार प्रकार का शील था। फिर भी वे क्यों जल गये ? उनके हाथ-पैरो में पहनाये गये दहकते लोहे के कड़े ठंडे क्यों नहीं हुए?
प्रश्न २७ : 'निमित्त कर्ता नहीं इसका और क्या ठोस आधार है ?
उत्तर : हाँ है, निमित्त स्वयं कार्यरूप परिणमन नहीं करता। जो स्वयं कार्यरूप परिणमता है, वही वास्तविक कर्ता है।
कहा भी है - 'यः परिणमति सः कर्ता। प्रश्न २८ : निमित्तों में कर्तापने के भ्रम होने के क्या-क्या कारण हैं
उत्तर : भ्रम से उत्पन्न हुई परपदार्थों में कर्तृत्वबुद्धि को मेटने का उपाय भ्रम को दूर करना ही है। जो जिनागम में प्रतिपादित निमित्तों के अकर्तृत्व के सिद्धान्त को भली-भाँति समझने एवं उसमें श्रद्धावान होने से ही दूर हो सकता है। एतदर्थ जिनागम का अध्ययन-मनन-चिन्तन करना आवश्यक है।
जिनागम में चारों अनुयोगों में इसप्रकार के उदाहरण उपलब्ध हैं, जिनसे निमित्तों का अकर्तृत्व सिद्ध होता है और यह भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है कि - परद्रव्यरूप निमित्त आत्मद्रव्य के परिणमनरूप कार्य में सर्वथा अकर्ता हैं। वे आत्मा के सुख-दु:ख, जीवन-मरण आदि में कुछ भी सहयोग-असहयोग नहीं कर सकते। ___ जिन्होंने अपने विवेक से मन-मस्तिष्क को खुला रखकर आगम चक्षुओं से वस्तुस्वरूप को निरखा-परखा है, वे उपर्युक्त भ्रमोत्पादक कारणों के विद्यमान रहते हुए भी भ्रमित नहीं होते। उन्हें शीघ्र सन्मार्ग मिल जाता है। __आचार्य अमृतचन्द्र प्रवचनसार गाथा ८७ की टीका में लिखते हैं कि "जीव के किए हुए रागादि परिणामों का निमित्त पाकर नवीन-नवीन अन्य पुद्गल स्कन्ध स्वयमेव ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमित हो जाते हैं। जीव इन्हें कर्मरूप परिणमित नहीं करता।"
इसी तथ्य के पोषक दो श्लोक पुरुषार्थसिद्धयुपाय में भी आये हैं, जो इसप्रकार हैं
उत्तर : भ्रम उत्पन्न होने का मूल कारण तो कर्ता-कर्म संबंधी भूल ही है। इसके अतिरिक्त - १. निमित्त कारणों का कार्य के अनुकूल होना, २. निमित्तों की अनिवार्य उपस्थिति. ३. निमित्तों का कार्य के सन्निकट होना, ४. आगम में निमित्त प्रधान कथनों की बहुलता, ५. निमित्त-नैमित्तिक संबंधों की घनिष्ठता, ६. कृतज्ञता ज्ञापन की प्रवृत्ति, ७. प्रेरक निमित्तों की