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वस्तु स्वातंत्र्य की घोषणा
(ग) सुनने की इच्छा से (घ) आत्मा से सही उत्तर : आत्मा से; क्योंकि परिणाम परिणामी का ही होता है।
तीन :- कर्ता के बिना कर्म नहीं होता अर्थात् परिणामी के बिना परिणाम नहीं होता। 'इक कर्म कर्तृ शून्यम् न भवति'
देखो, यहाँ ऐसा तो कहा कि कर्ता के बिना कार्य नहीं होता; पर ऐसा नहीं कहा कि निमित्त के बिना कार्य नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि कार्य के काल में निमित्त भी होता तो अवश्य है, परन्तु निमित्त से कार्य नहीं होता; क्योंकि निमित्त निमित्त में रहता है, वह कार्यरूप नहीं होता । जबकि परिणामी (द्रव्य) स्वयं परिणाम (पर्याय) रूप से परिणमता
पर से कुछ भी संबंध नहीं तत्र कर्तृ-कर्म, भोक्त-भोग्यत्व व्यवहारः" अर्थात् अनेक द्रव्यत्व के कारण उनसे ( कर्म-करण आदि से ) अन्य होने से उनमें तन्मय नहीं होता, इसलिए दो अन्य-अन्य द्रव्यों में निमित्त-नैमित्तिक भाव मात्र से ही कर्तृत्व-कर्मत्व और भोक्तृत्व-भोग्यत्व का व्यवहार है।" ___इसी विषय को स्पष्ट करते हुए गुरुदेवश्री कानजी स्वामी ने श्रावक धर्म प्रकाश के परिशिष्ट में और भी अधिक स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि - इसी बात को हम उक्त कलश में उल्लिखित निम्नांकित चार बोलों के द्वारा और भी अधिक सरलता से समझ सकते हैं -
एक :- परिणाम ही कर्म है अर्थात् पर्याय ही कार्य है। 'ननु परिणाम एक किल कर्म विनिश्चयत:' परिणामी ( वस्तु ) का जो परिणाम है, वही निश्चय से उसका कार्य है। पदार्थ की अवस्था ही वास्तव में उसका कर्म है। परिणामी अर्थात् अखण्ड वस्तु जिस भाव से परिणमन करे, उसे परिणाम, कार्य, पर्याय या कर्म कहते हैं।
दो :- परिणाम परिणामी का ही होता है, अन्य का नहीं।
'सः परिणामिन एव भवेत्' वह परिणामी का होता है। जैसे ज्ञान शब्द सुनने का परिणाम आत्मा का ही है, आत्मा के ही आश्रय है, जड़ शब्द के आश्रित नहीं, कान के आश्रित भी नहीं, इच्छा के आश्रय भी नहीं, क्योंकि परिणाम परिणामी का ही है; इसलिए आत्मसम्मुख दृष्टि करो। उदाहरणार्थ -
प्रयोग : शब्द सुनने का ज्ञान किससे हुआ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए निम्नांकित चार विकल्प दिये हैं, उनमें एक सही व तीन गलत है। आपको सही उत्तर देना है। वे विकल्प हैं - (क) शब्द से
(ख) कान से
चार :- वस्तु की स्थिति सदा एकरूप नहीं रहती।
'वस्तुनः एकतया स्थिति न' अर्थात् वस्तु नित्य अवस्थित रहकर स्वयं ही प्रतिक्षण नवीन अवस्थारूप परिणमित होती रहती है। जिसने संयोगों के कारण तदनुसार पर्याय का पलटना माना, उसने वस्तु के परिणमन स्वभाव को नहीं जाना, दो द्रव्यों को एक माना।
उक्त चारों बोलों से समझाया गया है कि वस्तु ही अपने परिणमन रूप कार्य की स्वतंत्रता के स्वयं कर्ता है। अन्य द्रव्य अन्य द्रव्य के परिणाम के कर्ता नहीं हैं। इसे हम निम्नलिखित उदाहरण से समझ सकते हैं -
'जीव को दान देने की इच्छा हुई, इसलिए हाथ जेब में गया और सौ रुपया निकालकर दे दिए। क्या यह कथन सही है?
नहीं, क्योंकि उक्त वाक्य में इच्छा का आधार या आश्रय आत्मा है तथा हाथ और रुपयों का आधार पुद्गल परमाणु हैं। दोनों के आधार पृथक्-पृथक् दो द्रव्य हैं, अतः आत्मद्रव्य पुद्गल के परिणाम का कर्ता नहीं हो सकता; क्योंकि अन्य द्रव्य अन्य द्रव्य के परिणाम का कर्ता नहीं
१. समयसार पृष्ठ ५४२, पंक्ति १-२