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पुद्गलकरम विन जीव के उदयादि भाव होते नहीं। इससे करम कृत कहा उनको वे जीव के निजभाव हैं ।।५८।। यदि कर्मकृत हैं जीव भाव तो कर्म ठहरे जीव कृत। पर जीव तो कर्त्ता नहीं निज छोड़ किसी पर भाव का ।।५९।। कर्मनिमित्तिक भाव होते अर कर्म भावनिमित्त से। अन्योन्य नहि कर्ता तदपि, कर्ता बिना नहिं कर्म है।।६।। निजभाव परिणत आत्मा कर्ता स्वयं के भाव का। कर्ता न पुद्गल कर्म का यह कथन है जिनदेव का ।।६१।। कार्मण अणु निज कारकों से करम पर्यय परिणमें । जीव भी निज कारकों से विभाव पर्यय परिणमें ।।६।।
चेतन करम युत है अतः करता-करम व्यवहार से। जीव भोगे करमफल नित चैत्य-चेतक भाव से ।।६८।। इसतरह कर्मों की अपेक्षा जीव को कर्ता कहा। पर, जीव मोहाच्छन्न हो भ्रमता फिरै संसार में ।।६९।। जिन वचन से पथ प्राप्त कर उपशान्त मोही जो बने। शिवमार्ग का अनुसरण कर वे धीर शिवपुर को लहें ।।७।।
आतम कहा चैतन्य से इक ज्ञान-दर्शन से द्विविध । उत्पाद-व्यय-ध्रुव से त्रिविध अर चेतना से भी त्रिविध ।।७१।। चतुपंच षट् व सप्त आदिक भेद दसविध जो कहे। वे सभी कर्मों की अपेक्षा जिय के भेद जिनवर ने कहे ।।७२।।
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यदि करम करते करम को आतम करे निज आत्म को। क्यों करम फल दे जीव को क्यों जीव भोगे करम फल ।।६३।। करम पुद्गल वर्गणायें अनन्त विविध प्रकार की। अवगाढ़-गाढ़-प्रगाढ़ हैं सर्वत्र व्यापक लोक में ।।६४।। आतम करे क्रोधादि तब पुद्गल अणु निजभाव से । करमत्व परिणत होंय अर अन्योन्य अवगाहन करें ।।६५।। ज्यों स्कन्ध रचना पुद्गलों की अन्य से होती नहीं। त्यों करम की भी विविधता परकृत कभी होती नहीं ।।६६।। पर, जीव अर पुद्गलकरम पय-नीरवत प्रतिबद्ध हैं। करम फल देते उदय में जीव सुख-दुख भोगते ।।६७।।
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प्रकृति थिति अनुभाग बन्ध प्रदेश से जो मुक्त हैं। वे उर्द्धगमन स्वभाव से हैं प्राप्त करते सिद्धपद ।।७३ ।। स्कन्ध उनके देश अर परदेश परमाणु कहे। पुद्गलकाय के ये भेद चतु यह कहा जिनवर देव ने ।।७४।। स्कन्ध पुद्गलपिंड है अर अर्द्ध उसका देश है। अर्धार्द्ध को कहते प्रदेश अविभागी अणु परमाणु है ।।७५।। सूक्ष्म-बादर परिणमित स्कन्ध को पुद्गल कहा। स्कन्ध के षटभेद से त्रैलोक्य यह निष्पन्न है ।।७६ ।। स्कन्ध का वह निर्विभागी अंश परमाणु कहा। वह एक शाश्वत मूर्तिभव अर अविभागी अशब्द है ।।७७।।
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