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कोई वेदे कर्म फल को कोई वेदे करम को । कोई वेदे ज्ञान को निज त्रिविध चेतकभाव से ।। ३८ ।। थावर करम फल भोगते, त्रस कर्मफल युत अनुभवें । प्राणित्व से अतिक्रान्त जिनवर वेदते हैं ज्ञान को ।। ३९ ।। ज्ञान-दर्शन सहित चिन्मय द्विविध है उपयोग यह । ना भिन्न चेतनतत्व से है चेतना निष्पन्न यह ||४०|| मतिश्रुतावधि अर मनः केवल ज्ञान पाँच प्रकार हैं । कुमति कुश्रुत विभंग युत अज्ञान तीन प्रकार हैं । । ४१ ।। चक्षु अचक्षु अवधि केवल दर्श चार प्रकार हैं । निराकार दरश उपयोग में सामान्य का प्रतिभास है ।। ४२ ।। ( १३ )
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ज्ञान से नहिं भिन्न ज्ञानी तदपि ज्ञान अनेक हैं । ज्ञान की ही अनेकता से जीव विश्व स्वरूप है ||४३|| द्रव्य गुण से अन्य या गुण अन्य माने द्रव्य से । तो द्रव्य होंय अनन्त या फिर नाश ठहरे द्रव्य का ।। ४४ ।। द्रव्य अर गुण वस्तुतः अविभक्तपने अनन्य हैं विभक्तपन से अन्यता या अनन्यता नहि मान्य है ।। ४५ ।। संस्थान संख्या विषय बहुविध द्रव्य के व्यपदेश जो । वे अन्यता की भाँति ही, अनन्यपन में भी घटे ।। ४६ ।। धन सेधनी अरु ज्ञान से ज्ञानी द्विविध व्यपदेश है । इस भाँति ही पृथकत्व अर एकत्व का व्यपदेश है ।। ४७ ।। ( १४ )
यदि होय अर्थान्तरपना, अन्योन्य ज्ञानी ज्ञान में । दोनों अचेतनता लहें, संभव नहीं अत एव यह ।।४८ ।। प्रथक् चेतन ज्ञान से समवाय से ज्ञानी बने ।
यह मान्यता नैयायिकी जो युक्तिसंगत है नहीं ।। ४९ ।। समवर्तिता या अयुतता अप्रथकत्व या समवाय है । सब एक ही है - सिद्ध इससे अयुतता गुण - द्रव्य में ।।५० ।। ज्यों वर्ण आदिक बीस गुण परमाणु से अप्रथक हैं। विशेष के व्यपदेश से वे अन्यत्व को द्योतित करें ।। ५१ ।। त्यों जीव से संबद्ध दर्शन - ज्ञान जीव अनन्य हैं । विशेष के व्यपदेश से वे अन्यत्व को घोषित करें ।। ५२ ।। ( १५ )
है अनादि - अनन्त आतम पारिणामिक भाव से । सादि - सान्त के भेद पड़ते उदय मिश्र विभाव से ।। ५३ ।। इस भाँति सत-व्यय अर असत उत्पाद होता जीव के। लगता विरोधाभास सा पर वस्तुतः अविरुद्ध है । । ५४ ।। तिर्यंच नारक देव मानुष नाम की जो प्रकृति हैं । सद्भाव का कर नाश वे ही असत् का उद्भव करें ।। ५५ ।। उदय उपशम क्षय क्षयोपशम पारिणामिक भाव जो । संक्षेप में ये पाँच हैं विस्तार से बहुविध कहे ।। ५६ ।। पुद्गल करम को वेदते आतम करे जिस भाव को । उस भाव का वह जीव कर्ता कहा जिनवर देव ने ।।५७||
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