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________________ १४ (कुन्दकुन्द शतक ( २१ ) परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि । तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्हू || परमार्थ से हों दूर पर तप करें व्रत धारण करें। सब बालतप है बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें ।। परमार्थ में अस्थित अर्थात् निज भगवान आत्मा के अनुभव से रहित जो जीव तप करता है, व्रत धारण करता है; उसके उन व्रत और तप को सर्वज्ञ भगवान बालतप एवं बालव्रत कहते हैं। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान बिना आत्मानुभव के बिना किये गये व्रत और तप निरर्थक हैं। ( २२ ) वदणियमाणि धरता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता । परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति ।। व्रत नियम सब धारण करें तप शील भी पालन करें। पर दूर हों परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ति करें ।। शील और तप को करते हुए भी, व्रत और नियमों को धारण करते हुए भी जो जीव परमार्थ से बाह्य हैं, परमार्थ अर्थात् सर्वोत्कृष्ट पदार्थ निज भगवान आत्मा के अनुभव से रहित हैं, उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती है। निर्वाण की प्राप्ति आत्मानुभवियों को ही होती है। निर्वाण की प्राप्ति आत्मानुभवियों को ही होती है। ( २३ ) जं सक्कड़ तं कीरइ जं च ण सक्केड़ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ।। जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें। श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें ।। जो शक्य हो, वह करे; जो शक्य न हो, न करे; पर श्रद्धान तो सभी का करे; क्योंकि केवली भगवान ने श्रद्धान करने वाले को सम्यग्दर्शन होता है - ऐसा कहा है। २१. समयसार, गाथा १५२ २२. अष्टपाहुड दर्शनपाहुड, गाथा २२ २२. समयसार, गाथा १५३ 9 कुन्दकुन्द शतक) ( २४ ) जीवादीसहहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ।। जीवादि का श्रद्धान ही व्यवहार से सम्यक्त्व है। पर नियत नय से आत्म का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ।। जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है और अपने आत्मा का श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है। (२५) सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण । सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माई ॥ नियम से निज द्रव्य में रत श्रमण सम्यकवंत हैं । सम्यक्त्व-परिणत श्रमण ही क्षय करें करमानन्त हैं ।। १५ जो श्रमण स्वद्रव्य में रत है, रुचिवंत है; वह नियम से सम्यक्त्व सहित है । सम्यक्त्व सहित वह श्रमण दुष्टाष्ट कर्मों का नाश करता है। अपने आत्मा में अपनापन स्थापित कर अपने आत्मा में लीन हो जाने वाले सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा श्रमण आठ कर्मों का नाश करते हैं, सिद्धदशा को प्राप्त करते हैं। ( २६ ) किं बहुणा भणिएण जे सिद्धा णरवरा गए काले । सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ।। मुक्ती गये या जायेंगे माहात्म्य है सम्यक्त्व का । यह जान लो हे भव्यजन ! इससे अधिक अब कहें क्या ।। अधिक कहने से क्या लाभ है, इतना समझ लो कि आज तक जो जीव सिद्ध हुए हैं और भविष्यकाल में होंगे, वह सब सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है । तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन के बिना न तो आज तक कोई सिद्ध हुआ और न भविष्य में होगा । है २४. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा २० २६. अष्टपाहुड मोक्षपाहुड, गाथा ८८ २५. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १४
SR No.008358
Book TitleKundkunda Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 KB
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