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(कुन्दकुन्द शतक
(२७)
ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया । सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मड़लियं जेहिं ।। वे धन्य हैं सुकृतार्थ हैं, वे शूर नर पण्डित वही । दुःस्वप्न में सम्यक्त्व को जिनने मलीन किया नहीं ।।
जिन जीवों ने मुक्ति प्राप्त कराने वाले सम्यग्दर्शन को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया; वे ही धन्य हैं, कृतार्थ हैं, शूरवीर हैं, पण्डित हैं, मनुष्य हैं। तात्पर्य यह है कि सभी गुण सम्यग्दर्शन से ही शोभा पाते हैं । अतः हमें निर्मल सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए। स्वप्न में भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे सम्यग्दर्शन में मलिनता उत्पन्न हो ।
( २८ )
भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।। चिदचिदास्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा । तत्त्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं । भूतार्थ (निश्चय) नय से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष- ये नव तत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं। तात्पर्य यह है कि मात्र व्यवहार से तत्त्वों का स्वरूप जान लेना पर्याप्त नहीं है, नव तत्त्वों का वास्तविक स्वरूप निश्चयनय से जानना चाहिए।
( २९ )
ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ । भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ।। शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहारनय । भूतार्थ की ही शरण गह यह आतमा सम्यक् लहे ।। व्यवहारनय अभूतार्थ (असत्यार्थ ) है और शुद्धनय (निश्चयनय) भूतार्थ (सत्यार्थ) है। जो जीव भूतार्थ अर्थात् शुद्ध निश्चयनय के विषयभूत निज भगवान आत्मा का आश्रय लेता है, वह जीव नियम से सम्यग्दृष्टि होता है। २७. अष्टपाहुड मोक्षपाहुड, गाथा ८९
२८. समयसार, गाथा १३
२९. समयसार, गाथा ११
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कुन्दकुन्द शतक)
(30)
जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ॥
अनार्य भाषा के बिना समझा सके न अनार्य को । बस त्योंहि समझा सके ना व्यवहार बिन परमार्थ को ।
जिसप्रकार अनार्य ( म्लेच्छ) जनों को अनार्य भाषा के बिना कोई भी बात समझाना शक्य नहीं है, उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है। तात्पर्य यह है कि अभूतार्थ होने पर भी निश्चय का प्रतिपादक होने के कारण व्यवहार को जिनवाणी में स्थान प्राप्त है ।
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( ३१ )
वारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को । दु णिच्छयस जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो ॥ देह-चेतन एक हैं- यह वचन है व्यवहार का । ये एक हो सकते नहीं यह कथन है परमार्थ का ।। व्यवहारनय तो यह कहता है कि जीव और शरीर एक ही है, किन्तु निश्चयनय के अभिप्राय से जीव और शरीर कदापि एक नहीं हो सकते हैं, वे भिन्न-भिन्न ही हैं । यह असद्भूत व्यवहारनय का प्रतिपादन है, जिसका निषेध निश्चयनय कर रहा है।
( ३२ )
ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित दंसणं णाणं ।
ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ।। दृग ज्ञान चारित जीव के हैं - यह कहा व्यवहार से । ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ।। व्यवहारनय से कहा जाता है कि ज्ञानी के ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है; किन्तु निश्चय से ज्ञानी के न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है, ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है। यह सद्भूत व्यवहारनय का कथन है, जिसका निषेध निश्चय कर रहा है।
३०. समयसार, गाथा ८
३२. समयसार, गाथा ७
३१. समयसार, गाथा २७