________________
(कुन्दकुन्द शतक
कुन्दकुन्द शतक)
मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय। तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ।। मोक्षपथ में थाप निज को चेतकर निज ध्यान धर ।
निज में ही नित्य विहार कर पर द्रव्य में न विहार कर।। हे आत्मन् ! तू स्वयं को निजात्मा के अनुभवरूप मोक्षमार्ग में स्थापित कर, निजात्मा का ही ध्यान धर, निजात्मा में ही चेत, निजात्मा का ही अनुभव कर एवं निजात्मा के अनुभवरूप मोक्षमार्ग में ही नित्य विहार कर, अन्य द्रव्यों में विहार मत कर, उपयोग को अन्यत्र मत भटका, एक आत्मा का ही ध्यान धर।
(१८) जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ।। जानना ही ज्ञान है अरु देखना दर्शन कहा।
पुण्य-पाप का परिहार चारित्र यही जिनवर ने कहा।। जो जानता है, वह ज्ञान है; जो देखता है, वह दर्शन है और पुण्य-पाप के परिहार को चारित्र कहा गया है; क्योंकि पुण्य और पाप दोनों ही रागभावरूप हैं और चारित्र वीतरागभावरूप होता है।
जीवादीसद्दहणं सम्मत्त तेसिमधिगमो णाणं । रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ।। जीवादि का श्रद्धान सम्यक ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।
रागादि का परिहार चारित यही मुक्तीमार्ग है ।। जीवादि पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है और उन्हीं का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है तथा रागादि भावों का त्याग सम्यक्चारित्र है - बस यही मोक्ष का मार्ग है।
(१७) तच्चरुई सम्मत्तं तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं । चारित्तं परिहारो परूवियं जिणवरिंदेहिं ।। तत्त्वरुचि सम्यक्त्व है तत्ग्रहण सम्यग्ज्ञान है।
जिनदेव ने ऐसा कहा परिहार ही चारित्र है ।। तत्त्वरुचि सम्यग्दर्शन है, तत्त्वग्रहण सम्यग्ज्ञान है और मोह-राग-द्वेष एवं परपदार्थों का त्याग सम्यक्चारित्र है - ऐसा जिनेन्द्र देवों ने कहा है।
परमतत्त्व रूप निज भगवान आत्मा की रुचि सम्यग्दर्शन, उसी का ग्रहण सम्यग्ज्ञान और उससे भिन्न परद्रव्यों एवं उनके लक्ष्य से उत्पन्न चिद्विकारों का त्याग ही सम्यक्चारित्र है। १५. समयसार, गाथा ४१२
१६. समयसार, गाथा १५५ १७. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा ३८
णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहणं । संजमहीणो य तवो जड़ चरइ णिरत्थयं सव्व ।। दर्शन रहित यदि वेष हो चारित्र विरहित ज्ञान हो।
संयम रहित तप निरर्थक आकाश-कुसुम समान हो।। चारित्रहीन ज्ञान निरर्थक है, सम्यग्दर्शन के बिना लिंग-ग्रहण अर्थात् नग्न दिगम्बर दीक्षा लेना निरर्थक है और संयम बिना तप निरर्थक है। सम्यग्ज्ञान की सार्थकता तदनुसार आचरण करने में है। तप भी संयमी को ही शोभा देता है और साधुवेष भी सम्यग्दृष्टियों का ही सफल है।
(२०) णाण चरितसुद्धं लिंगग्गहण च दसणविसुद्धं । संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ।। दर्शन सहित हो वेष चारित्र शुद्ध सम्यग्ज्ञान हो ।
संयम सहित तप अल्प भी हो तदपि सुफल महान हो।। चारित्र से शुद्ध ज्ञान, सम्यग्दर्शन सहित लिंगग्रहण एवं संयम सहित तप यदि थोड़ा भी हो तो महाफल देनेवाला होता है। १८. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा ३७ १९. अष्टपाहुड : शीलपाहुड गाथा ५ २०. अष्टपाहुड : शीलपाहुड, गाथा ६ ।