________________
क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
अत: भले ही पर्यायों का क्रम निश्चित हो, परन्तु लौकिक दृष्टि से उसे स्वीकार न करने में ही हित है। उत्तर :
१. भय और निराशा की उत्पत्ति अज्ञान और कषाय से होती है, वस्तु स्वरूप समझने से नहीं, कवि बुधजनजी ने अपनी आध्यात्मिक रचना में क्रमबद्धपर्याय के निर्णय से निर्भयता उत्पन्न होने की घोषणा की है। उनकी निर्भयता का आधार सत्य की स्वीकृति है, पर-पदार्थों में परिवर्तन की कल्पना नहीं।
२. यदि ज्ञानी और अज्ञानी दोनों पर कोई संकट आ जाये तो ज्ञानी धैर्यधारण करके निर्भय रहेगा और अज्ञानी भयाक्रान्त हो जायेगा। यदि दोनों भगवान का स्मरण करने लगें तो ज्ञानी तो अशुभ से बचकर धैर्यधारण करने के अभिप्राय से भगवान का स्मरण करेगा और अज्ञानी इस अभिप्राय से भगवान को याद करेगा कि कोई देवता आकर संकट दूर कर देंगे। इस अभिप्राय से वह मिथ्यात्व का पोषण ही करेगा।
३. यदि ज्ञानी को थोड़ी बहुत आकुलता भी होती दिखे तो यह उसकी श्रद्धा का दोष नहीं है, अपितु चरित्र की कमजोरी है, क्योंकि परिस्थितियों में परिवर्तन करने का अभिप्राय न होते हुए भी वह स्वरूप में स्थिर नहीं हो पा रहा है।
४. झूठी आशा बनाये रखने के लिए सत्य को स्वीकार न करना महानतम अपराध है। जब तक आशा है तब तक दुःख ही है। आचार्य गुणभद्र ने कहा है कि प्रत्येक प्राणी का आशारूपी गड्ढ़ा इतना गहरा है कि उसमें सारा विश्व भी अणु जैसा है, अर्थात नहीं के बराबर हैं। अतः उसकी पर्ति सम्भव न होने से आशा करना ही व्यर्थ है। आशा और निराशा दोनों दुःखरूप हैं, आशा के अभावरूप अनाशा ही सुखरूप है।
५. संसार के कार्यों में निरुत्साहित होना ही श्रेष्ठ है। जो संसार में निरुत्साहित होगा, वह मोक्षमार्ग में उत्साहित होगा। जिसका मनोबल टूटेगा, उसका आत्मबल जागेगा। अतः क्रमबद्धपर्याय को स्वीकार करने में ही सच्चा हित है। यह बात हमारे हित के लिए ही कही जा रही है।
事本事事
क्रमबद्धपर्याय : कुछ प्रश्नोत्तर
गर्भित आशय :- क्रमबद्धपर्याय हमारी समझ में जब आना होगी तभी आयेगी, उससे पहले या बाद में नहीं । यह तो आप भी मानते हैं, तो हमें समझाने के विकल्प से आप व्यर्थ में क्यों परेशान हो रहे हैं? जब हमारी समझ में आना होगा, तब आ जायेगा और नहीं आना होगा तो नहीं आयेगा। अतः आप जबर्दस्ती समझाने की आकुलता क्यों कर रहे हैं? उत्तर :
१. हमारे प्रति आपकी सहानुभूति तो ठीक है, परन्तु हम आपको समझाने के लिए परेशान हो रहे हैं - यह बात नहीं है। हम तो अपने राग के कारण परेशान हो रहे हैं। हमारी वर्तमान भूमिका में न चाहते हुये यह राग आये बिना नहीं रहता।
२. अज्ञानियों को समझाने की करुणारूप शुभराग तो वीतरागी भावलिंगी मुनिराजों को भी आये बिना नहीं रहता, अन्यथा वे परमागमों की रचना क्यों करते? आकुलतास्वरूप होते हुये भी हमें यह राग आये बिना नहीं रहता कि हमने जिस सत्य को समझने से अपूर्व शांति प्राप्त की है, जगत् भी उस सत्य को समझकर अपूर्व शान्ति का वेदन करे।
****
प्रश्न २०
गर्भित आशय :- आपकी ऐसी उत्कृष्ट भावना होने पर भी यदि कोई आपकी बात न माने तो आप क्या करेंगे? उत्तर :
१. हम क्या कर सकते हैं? किसी को जबर्दस्ती तो समझा नहीं सकते। जगत् का अज्ञान देखकर करुणा आती है, अतः जैसा वस्तु-स्वरूप जाना है, वैसा बोलने लगते हैं, लिखने लगते हैं। जिनकी भली होनहार होती है वे सुनते हैं, समझते हैं तथा स्वीकार करके सुखी होते हैं, और जो नहीं सुनते या समझते, उनकी होनहार विचार करके हम भी मध्यस्थ भाव धारण करते हैं। यही भाव पण्डित प्रवर टोडरमलजी ने भी व्यक्त किया है।
प्रश्न १९