SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका सर्वज्ञता के निर्णय की अनिवार्यता गद्यांश ३० कुछ लोगों का कहना है..........................बुद्धि को व्यवस्थित करते हैं। (पृष्ठ ६० पैरा नं. ६ से पृष्ठ ६४ पैरा नं. ६ तक) विचार बिन्दु : १. कुछ लोग कहते हैं कि क्रमबद्धपर्याय सिद्ध करने के लिए सर्वज्ञता का सहारा क्यों लिया जाता है, उसे वस्तु स्वरूप के आधार से सिद्ध कीजिए? प्रवचनसार गाथा ९९ से १०१ में त्रिलक्षण परिणाम पद्धति के प्रकरण में वस्तु-स्वरूप के अनुसार सर्वज्ञता सिद्ध की गई है; फिर भी सर्वज्ञता जैन दर्शन में सर्वमान्य है, अतः जिन्हें सर्वज्ञता की थोड़ी भी श्रद्धा है, उन्हें क्रमबद्धपर्याय समझने में सुविधा रहती है। साधारण बुद्धिवालों को भी सर्वज्ञता के आधार से यह सूक्ष्म विषय समझ में आ सकता है। ___ चौबीस तीर्थंकर, तिरेसठ शलाका पुरुष, ढाई द्वीप, पाँचों मेरु, नन्दीश्वर द्वीप, स्वर्ग-नरक आदि सभी कुछ हम सर्वज्ञ कथित आगम के आधार से ही मानते हैं, फिर क्रमबद्धपर्याय जैसे सूक्ष्म विषय के लिए सर्वज्ञता या सर्वज्ञ कथित आगम का सहारा क्यों छोड़ दिया जाये? क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा के लिए न सही, देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा के लिए तो सर्वज्ञता का निर्णय करना ही पड़ेगा। २. क्रमबद्धपर्याय का विरोध करने वाले स्वयं को देव-शास्त्र-गुरु के रक्षक और आगम का संरक्षक मानते हैं परन्तु वे यह नहीं सोचते कि सर्वज्ञता अर्थात् क्रमबद्धपर्याय का निर्णय किए बिना देव-शास्त्र-गुरु का स्वरूप नहीं समझा जा सकता, तथा आगम तो सर्वज्ञ की वाणी है, जिसमें निश्चित भविष्य की असंख्य घोषणायें भरी पड़ी हैं। आगम के आधार बिना करणानुयोग का भी एक भी विषय क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन सिद्ध नहीं किया जा सकता। अतः सर्वज्ञता का आधार छोड़ने का आग्रह करना उचित नहीं है। ३. न केवल क्रमबद्धपर्याय अपितु सभी सिद्धान्तों का प्रतिपादन आचार्यों ने सर्वज्ञता के आधार पर किया है, अतः सर्वज्ञता और आगम के आधार बिना किस-किस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया जाएगा? ४. देव-शास्त्र-गुरु को हमारी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है, वे तो सुरक्षित ही हैं। हमें भव-भ्रमण से अपनी सुरक्षा करना हो तो उनका सच्चा स्वरूप समझना होगा । कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रवचनसार की ८०वीं गाथा में मोह का नाश करने के लिए अरहन्त भगवान को जानने की बात कहकर वे ८२वीं गाथा में कहते हैंसभी अर्हन्तों ने इसी विधि का उपदेश दिया है - ऐसे अर्हन्तों को नमस्कार हो। इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं :- “अधिक प्रलाप से बस होओ, मेरी मति व्यवस्थित हो गई है।" उक्त विवेचन से स्पष्ट है। आत्महित के लिए सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय का स्वरूप समझकर अपनी मति व्यवस्थित करना अनिवार्य है। प्रश्न :८४. क्रमबद्धपर्याय को सिद्ध करने के लिए सर्वज्ञता को आधार बनाना अनिवार्य क्यों है? ८५. क्रमबद्धपर्याय को विरोध करने वाले सर्वज्ञता के बारे में क्या भूल करते हैं? 22 अव्यवस्थित मति और स्वचलित व्यवस्था गद्यांश ३१ अरे भाई...... .....विराम लेता हूँ। (पृष्ठ ६४ पैरा नं. ७ से पृष्ठ ६७ सम्पूर्ण) विचार बिन्दु : १. यह जगत् तथा इसकी परिणमन व्यवस्था व्यवस्थित और स्वचलित है, परन्तु अज्ञानी को अव्यवस्थित नजर आती है और वह इसे व्यवस्थित करना चाहता है; इसकी ऐसी बुद्धि ही अव्यवस्थित मति है। जैसे - चलती रेल में बैठा व्यक्ति स्वयं को स्थिर तथा बाहर के पेड़-पौधों को दौड़ता हुआ समझता है, वैसे
SR No.008357
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size244 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy