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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका क्रमबद्धपर्याय का सच्चा निर्णय नहीं है, वह पुरुषार्थ का सच्चा स्वरूप भी नहीं जानता। वह पर-कर्तृत्व और पर्यायों के हेर-फेर को ही पुरुषार्थ समझ रहा है, जबकि ऐसा मानने पर पुरुषार्थ तो टूटना ही चाहिए। यदि वह सर्वज्ञता और पुरुषार्थ के सच्चे स्वरूप का निर्णय करे तो उसे पुरुषार्थ का निषेध होने की शंका नहीं रहेगी। अत: उसे सर्वज्ञता और पुरुषार्थ के सच्चे स्वरूप पर गंभीरता से विचार करके यथार्थ निर्णय करना चाहिए। प्रश्न :७७. पुरुषार्थ किसे कहते हैं? ७८. क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ कैसे प्रगट होता है? ७९. क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से पुरुषार्थ का लोप हो जाता है - इस मान्यता का
खण्डन कीजिए? जिन्हें क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ का लोप दिखता है, उन्हें क्या विचार करना चाहिए?
本本本本 सर्वज्ञता की श्रद्धा
गद्याश२९ सर्वज्ञ को धर्म का मूल.............. .............श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।
(पृष्ठ ५७ पैरा नं. ५ से पृष्ठ ६० पैरा नं. ५ तक) विचार बिन्दु :
१. सर्वज्ञ भगवान धर्म के मूल हैं, क्योंकि उनकी सच्ची श्रद्धा से ही सम्यग्दर्शन अर्थात् धर्म का प्रारम्भ होता है। सर्वज्ञ भगवान को द्रव्य-गुण-पर्याय से जाननेवाला अपने आत्मा को जानता है और आत्मा को जानने से उसका मोहक्षय अवश्य होता है; क्योंकि आत्मा को नहीं जानना ही मोह है, अतः आत्मा को जानना मोह के अभाव स्वरूप है।
२. सर्वज्ञ के द्रव्य-गुण को जानने से आत्मा का त्रैकालिक स्वरूप ज्ञात होता
क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन
७९ है, तथा पर्याय को जानने से अपनी और उनकी पर्यायों का अन्तर ख्याल में आता है, जिससे रागादि विकारी भाव और अल्पज्ञता आत्मा का स्वरूप नहीं है - ऐसा निर्णय होने से उनसे भेदज्ञान होता है। इसप्रकार सर्वज्ञ के सच्चे स्वरूप को जानकर ही सर्वज्ञ बनने का सच्चा पुरुषार्थ प्रगट किया जा सकता है।
जिसप्रकार तीर्थंकर माँ के गर्भ में आने के पहले उनके स्वप्नों में आते हैं, उसीप्रकार सर्वज्ञता पर्याय में प्रगट होने के पहले समझ में आती है। समझ में आए बिना वह प्रगट नहीं हो सकती।
३. इस कलिकाल में कुछ जैन-धर्मानुयायी भी पक्ष-व्यामोह केकारण सर्वज्ञता में भी मीन-मेख निकालने लगे हैं। आचार्य समन्तभद्र ने डंके की चोट पर सर्वज्ञता सिद्ध की है, अतः वे कलिकाल सर्वज्ञ कहलाए, आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने भी इस युग में यही कार्य किया है।
४. सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय एक ही सिक्के केदो पहलू हैं, क्योंकि सर्वज्ञता से क्रमबद्धपर्याय की सिद्धि तथा क्रमबद्ध को मानने से सर्वज्ञता की सिद्धि होती है। इन दोनों की श्रद्धा ज्ञायक स्वभाव के सन्मुख होने से होती है तथा इनके निर्णय से ही ज्ञायक स्वभाव के सन्मुख हो सकते हैं। अतः क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में ज्ञायक स्वभाव की सन्मुखता का अनन्त पुरुषार्थ समाहित है।
५. सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा जाता है और सर्वज्ञता की श्रद्धा बिना सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा नहीं हो सकती; क्योंकि सच्चे देव वीतरागी और सर्वज्ञ हैं, शास्त्र सर्वज्ञ की वाणी है और गुरु उनके बताए हुए मार्ग पर चलने वाले होते हैं। प्रश्न :८१. सर्वज्ञ को जानने से मोह का क्षय किस प्रकार होता है? ८२. सर्वज्ञता, क्रमबद्धपर्याय और ज्ञायक स्वभाव की सन्मुखता में परस्पर सम्बन्ध
स्थापित कीजिए? ८३. सर्वज्ञता की श्रद्धा बिना सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा क्यों नहीं होती?
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