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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
मिलती है।
पुरुषार्थ :- पुरुषार्थ का सच्चा स्वरूप समझने से तदनुसार प्रयत्न करने की प्रेरणा मिलती है।
काललब्धि :- प्रत्येक पर्याय अपने स्वकाल में होती है - ऐसा समझने से पर्यायों की कर्ताबुद्धि टूटकर दृष्टि स्वभाव-सन्मुख होती है।
होनहार :- होने योग्य कार्य होता ही है - ऐसा निर्णय करने से भी पर्याय की चिन्ता छोड़कर स्वभाव-सन्मुख होने की प्रेरणा मिलती है।
निमित्त :- निमित्त का सच्चा स्वरूप जानने से निमित्ताधीन दृष्टि छोड़कर स्वभाव-सन्मुख होने की प्रेरणा मिलती है।
उक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रत्येक समवाय का निर्णय पुरुषार्थ प्रेरक है, अत: मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ की मुख्यता से कथन होना स्वाभाविक है। प्रश्न :७३. कार्योत्पत्ति में पाँचों समवायों का सुमेल किस प्रकार है, स्पष्ट कीजिये? ७४. मोक्षमार्ग में किस समवाय की मुख्यता से कथन होता है और क्यों? ७५. किसी कार्य की उत्पत्ति का कारण पाँचों समवायों की मुख्या से बताइये? ७६. प्रत्येक समवाय का स्वरूप समझने से कौन से पुरुषार्थ की प्रेरणा मिलती है और कैसे?
事本事本 क्रमबद्धपर्याय और पुरुषार्थ
गद्यांश२८ पुरुषार्थसिद्धयुपाय..
...विनम्र अनुरोध है। (पृष्ठ ५४ से पृष्ठ ५७ पैरा नं. ४ तक) विचार बिन्दु :
१. पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ में आत्मा को पुरुष तथा आत्मानुभूति के प्रयत्न को पुरुषार्थ कहा है। जब तक पर-पदार्थों और पर्यायों में इच्छानुकूल
क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन परिणमन कराने की मान्यता रहती है, तब तक आत्मानुभूति नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसी मान्यता में दृष्टि स्वभाव सन्मुख नहीं होती, पर में ही रहती है। क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से ऐसी मान्यता टूटकर अकर्ता ज्ञायक स्वभाव की दृष्टिपूर्वक सम्यग्दर्शन होता है।
२. दृष्टि का स्वभाव सन्मुख ढलना ही मुक्ति के मार्ग में अनन्त पुरुषार्थ है। क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा करने वाले को उक्त श्रद्धा के काल में आत्मोन्मुखी अनन्त पुरुषार्थ होने का और सम्यग्दर्शन होने का क्रम भी सहज होता है।
३. यह जगत् पर और पर्याय के कर्तृत्व के अहंकार से ग्रस्त है और इसमें ही पुरुषार्थ समझता है। इन विकल्पों से विराम लेकर आत्मा में स्थिरता रूप पुरुषार्थ को वह नहीं जानता।
४. जिन्हें क्रमबद्धपर्याय की स्वीकृति में पुरुषार्थ का लोप दिखता है, उन्हें विचार करना चाहिए कि सर्वज्ञ भगवान भी पर और पर्यायों में परिवर्तन के विकल्पों से रहित होकर अपने में ही लीन होते हुए भी अनन्त पुरुषार्थी हैं, तो फिर हम भी क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा करके सम्यक्-पुरुषार्थ प्रगट क्यों नहीं कर सकते?
५. पुरुषार्थ जीव द्रव्य की पर्याय है; अतः उसका कार्य जीव की पर्याय में होता है, पर में नहीं । अतः भगवान का अनन्त पुरुषार्थ निज में है, पर में नहीं। अपने को पर और पर्यायों का कर्ता मानने में अनन्त विपरीत पुरुषार्थ है, जिसका फल संसार-भ्रमण है; तथा अपने में लीन रहकर पर और पर्यायों को मात्र जानने में अनन्त सम्यक् पुरुषार्थ है, जिसका फल मुक्ति है।
६. अज्ञानी मानते हैं कि “वस्तु का परिणमन केवलज्ञान के अनुसार मानने पर हम उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकते; इसलिए उसमें पुरुषार्थ का लोप हो जाता है।” परन्तु उनका ऐसा मानना मिथ्या है, क्योंकि पर में परिवर्तन करना आत्मा का पुरुषार्थ है ही नहीं। जिसने केवलज्ञान का तथा सर्वज्ञ का निर्णय किया है उसे अपने ज्ञान स्वभाव का निर्णय अवश्य होता है और यही सच्चा पुरुषार्थ है। केवलज्ञान का निर्णय करने वाले ज्ञान में ही अनन्त पुरुषार्थ प्रगट हो जाता है। जिसे क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थहीनता दिखती है, उसे केवलज्ञान या
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