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________________ ७४ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन उत्तर :- सात तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करके त्रिकाली अखण्ड ज्ञायक स्वभाव का अवलम्बन करने पर सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। प्रश्न :- यह जीव तत्त्व-निर्णय एवं स्वभाव सन्मुखता का पुरुषार्थ कब करेगा? उत्तर :- जब इसकी श्रद्धा ज्ञान आदि गुणों की पर्याय में इस कार्यरूप परिणमन की योग्यता का स्वकाल आएगा, तभी ऐसा पुरुषार्थ करेगा। प्रश्न :- क्या हम उपर्युक्त पुरुषार्थ अपनी इच्छा से अभी नहीं कर सकते? उत्तर :- यदि कर सकते हैं तो कर लें? क्यों नहीं करते? इससे सिद्ध होता है कि इच्छा होना अलग बात है, और कार्य होना अलग बात है। पुरुषार्थ सम्बन्धी इच्छा, विकल्प आदि होने पर भी उनसे पुरुषार्थरूपी कार्य नहीं हो सकता । कार्य तो अपनी तत्समय की योग्यतानुसार होता है। उस समय इच्छा या विकल्प को निमित्त कहा जाता है। यदि स्वभाव सन्मुखता का पुरुषार्थ भी हमारी इच्छानुसार होता तो मुनि होने के बाद जो कार्य भरत चक्रवर्ती को अन्तमुहूर्त में हो गया, वही कार्य होने में मुनिराज ऋषभदेव को एक हजार वर्ष क्यों लगे? प्रश्न :- काललब्धि आने पर यह जीव सम्यक्त्व का पुरुषार्थ ही करेगा, अन्य कार्यों का नहीं? यह कैसे माना जा सकता है? उत्तर :- उस काल में सम्यक्त्वरूप कार्य की ही योग्यता है, अन्य कार्यों की नहीं, अत: वह जीव उस समय सम्यक्त्व का पुरुषार्थ ही करेगा। इसलिए उस काल को सम्यग्दर्शन की काललब्धि कहा जाता है। प्रश्न :- सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में अनुकूल कौन होता है? उत्तर :- सच्चे देव-शास्त्र-गुरु तथा दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षयोपशम या क्षय सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में अनुकूल कहा जाता है, इसलिए उन्हें सम्यक्त्व की उत्पत्ति में निमित्त कहते हैं। उपर्युक्त प्रश्नोत्तर श्रृंखला से क्रमशः स्वभाव, पुरुषार्थ, काललब्धि, होनहार और निमित्त का सुमेल स्पष्ट होता है कि विवक्षित कार्यरूप परिणमित होने की योग्यता वाला द्रव्य, उस कार्य के स्वकाल में उसी कार्य की उत्पत्ति करता है, तथा उस समय अनुकूल बाह्य-पदार्थों की उपस्थिति भी सहज होती है। ५. कार्य की उत्पत्ति में प्रत्येक समवाय एक साथ होते हैं, उसमें कोई मुख्यगौण नहीं होता। किसी भी एक समवाय की मुख्यता से कथन हो सकता है। किसी जीव को सम्यक्त्व की उत्पत्ति कैसे हुई? इस प्रश्न का उत्तर प्रत्येक समवाय की मुख्यता से निम्नानुसार होगा। स्वभाव :- आत्मा के श्रद्धा गुण में सम्यग्दर्शनरूप परिणमन करने की शक्ति से सम्यग्दर्शन हुआ। पुरुषार्थ :- आत्मा के त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव की प्रतीति करने से सम्यग्दर्शन हुआ। काललब्धि :- सम्यग्दर्शन होने का स्वकाल आया इसलिए सम्यग्दर्शन हुआ। होनहार :- सम्यग्दर्शन होना था इसलिए सम्यग्दर्शन हुआ। निमित्त :- दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम से सम्यग्दर्शन हुआ। ६. यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि पुरुषार्थ की मुख्यता से कथन आत्मा के मोक्षमार्गरूप कार्य के सन्दर्भ में ही किया जाता है। शेष पाँच द्रव्यों में भी पाँचों समवाय होते हैं, परन्तु उनके कार्यों में पुरुषार्थ की मुख्यता से कथन का कोई प्रयोजन नहीं होता । उनमें प्रायः निमित्त काललब्धि आदि की मुख्यता से कथन होता है। सभी द्रव्यों की कार्योत्पत्ति में पाँचों समवाय समानरूप से होते हैं। ७. मोक्षमार्गरूप कार्य के सन्दर्भ में किसी भी समवाय की मुख्यता से कथन हो, सभी कथनों से पुरुषार्थ की प्रेरणा मिलती है - इस तथ्य को निम्नानुसार स्पष्ट किया जा सकता है। स्वभाव :- आत्मा का स्वभाव जानने से उसकी महिमा प्रगट होती है। तथा पर-पदार्थों की महिमा टूटती है, जिससे सम्यक् पुरुषार्थ की प्रेरणा
SR No.008357
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size244 KB
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