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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
आवश्यकता नहीं है, इसलिए हमें भी उसके बारे में चिन्ता करने की रञ्चमात्र भी आवश्यकता भी नहीं है। पर-द्रव्यों की बात तो ठीक है, हमें अपने परिणमन की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं हैं। अजीव द्रव्य भी तो अपने या पर के परिणमन की चिन्ता नहीं करते, फिर भी उनका परिणमन व्यवस्थित होता रहता है, फिर हम अपने या पर के परिणमन की चिन्ता करके दुःखी क्यों हों?
हम पर-पदार्थों का कुछ नहीं कर सकते, कर्तृत्व का अभिमान मात्र करते हैं। हमारी दशा चलती गाड़ी के नीचे चलने वाले कुत्ते जैसी हो रही है।
हम पर-पदार्थों या अपनी पर्यायों में परिवर्तन तो कर नहीं सकते, मात्र करने की चिन्ता करते हैं और चिन्ता के कर्ता तभी तक है जब तक अज्ञान है। क्रमबद्ध-पर्याय की श्रद्धा ही हमें इस चिन्ता से मुक्त करके निश्चिन्त कर सकती है। प्रश्न :३८. क्रमबद्ध-पर्याय समझने का मूल उद्देश्य क्या है? ३९. हमें पर-पदार्थों और अपनी पर्यायों के क्रम में परिवर्तन की चिन्ता क्यों नहीं
करना चाहिए? ४०. हमें पर और पर्यायों की चिन्ता से मुक्त कौन कर सकता है?
क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन
ब, एक द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के परिणमन का कर्त्ता नहीं है। स. ज्ञानी जीव अपने विकारी परिणामों के भी कर्ता नहीं है।
द, परमार्थ से द्रव्य अपनी पर्यायों का कर्ता भी नहीं है। परन्तु यहाँ इस अपेक्षा की मुख्यता नहीं है । यहाँ तो प्रत्येक द्रव्य अपने परिणामों का कर्ता अवश्य है, परन्तु वह उनके क्रम में कुछ परिवर्तन का कर्त्ता नहीं है - यह अपेक्षा मुख्य है।
२. स्वकर्तृत्व, सहज कर्तृत्व, और अकर्तृत्व - इन तीनों का एक ही अर्थ है।
स्वकर्तृत्व :- अपनी पर्यायों का कर्ता होना स्वकर्तृत्व है। सहज कर्तृत्व :- पर के सहयोग की अपेक्षा तथा परिणमन की चिन्ता
किए बिना अपने आप अपने स्वकाल में पर्यायें उत्पन्न
होना सहज कर्तृत्व है। अकर्त्तत्व :- पर-पदार्थों में तन्मय न होना तथा अपनी पर्यायों के
क्रम में परिवर्तन की बुद्धि न करके उनका सहज ज्ञाता
दृष्टा रहना अकर्तृत्व है। पर्यायें अपने सुनिश्चित क्रमानुसार उत्पन्न होती हैं, इसका आशय यह नहीं है कि वे द्रव्य के किए बिना हो जाती हैं। द्रव्य उस पर्यायरूप परिणमित होकर उनका कर्ता होता है। ज्ञानी अपने निर्मल परिणामों का कर्ता होता है तथा अज्ञानी अपने अज्ञानभाव का कर्ता है । इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य स्वयं ही अपने क्रमबद्ध परिणामों का कर्ता है।
३. द्रव्य और पर्याय में कथञ्चित् भिन्नता की अपेक्षा द्रव्य को अपनी पर्यायों का भी अकर्ता तथा पर्याय का कर्ता पर्याय को ही कहा जाता है। इसका प्रयोजन भी पर्याय दृष्टि छुड़ाकर द्रव्य-दृष्टि कराना है। परन्तु यहाँ यह विवक्षा नहीं है।
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जैन-दर्शन का अकर्त्तावाद
गद्याश १७ जैन-दर्शन अकर्त्तावादी..........
..परिणाम का कर्ता है। (पृष्ठ २९ पैरा २ से पृष्ठ ३१ पैरा ४ तक) विचार बिन्दु :
१.जैन-दर्शन अकर्त्तावादी दर्शन है। अकर्त्तावाद में निम्न सिद्धान्त गर्भित हैं। अ. ईश्वर जगत् का कर्त्ता नहीं है।
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प्रश्न :