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________________ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका ३०. कषायों के अनुसार कार्य होना असम्भव क्यों है? ३१. तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि ६६ दिन क्यों नहीं खिरी? इस प्रश्न का उत्तर कषाय पाहुड/धवला में किस अपेक्षा से दिया गया है? ३२. काललब्धि आने पर ही कार्य उत्पन्न होता है- ऐसा मानने से क्या लाभ है? ३३. प्रत्येक कार्य भवितव्यता के अनुसार होता है? यह समझने के लिए किसी घटना में प्रश्नोत्तर की श्रृंखला का उदाहरण प्रस्तुत कीजिए? **** रागी जीव भी पर-पदार्थों के परिणमन का कर्त्ता नहीं है। गद्यांश १५ इस पर कई लोग कहते हैं............. ...........पर मैं तो कर सकता हूँ। (पृष्ठ २६ पैरा ७ से पृष्ठ २७ पैरा ५ तक) विचार बिन्दु : १. उक्त गद्यांश में अज्ञानी की मान्यता के पक्ष में तर्क प्रस्तुत हुए उनका समाधान किया गया है। अज्ञानी कहता है कि भगवान वीतरागी हैं, जगत के ज्ञाता-दृष्टा हैं, कर्ताधर्ता नहीं, अतः वेपर-पदार्थों का परिणमन नहीं बदल सकते, परन्तु हम तो रागी हैं, अल्पज्ञ हैं, हमें कुछ कर दिखाने की तमन्ना भी है, अतः हमारी तुलना सर्वज्ञ भगवान से नहीं करना चाहिए। हम क्यों नहीं बदल सकते? यदि हम नहीं बदल सकते, तो हमारा परिणमन भगवान के ज्ञान के आधीन हो जाएगा। २. वस्तु का परिणमन अपनी योग्यतानुसार स्वतंत्र होता है, ज्ञान तो उसे जानता मात्र है, परिणमता नहीं है। ज्ञान, वस्तु के परिणमन में कोई हस्तक्षेप नहीं करता, इसलिए ज्ञान में ज्ञात होने मात्र से वस्तु की स्वतंत्रता खण्डित नहीं होती। यदि कोई यह कहे कि भगवान पर-पदार्थों का परिणमन नहीं बदल सकते परन्तु हम तो बदल सकते हैं, तो उसका यह कहना हास्यास्पद है, क्योंकि जो कार्य अनन्तवीर्य केधनी सर्वज्ञ भगवान नहीं कर सकते, वह कार्य यह अल्पवीर्यवान क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन अल्पज्ञ करना चाहता है। __ कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२०-२१-२२ में इन्द्र भी पर में परिवर्तन नहीं कर सकते - ऐसा कहकर अल्पज्ञ और रागियों के पर-कर्तृत्व का निषेध किया गया है। अल्पज्ञ और रागियों में इन्द्र ही सर्वाधिक शक्तिशाली हैं, जब वह भी वस्तु के परिणमन को नहीं टाल सकते तो अन्य लोग कैसे टाल सकते हैं? प्रश्न :३४. अज्ञानी स्वयं को पर-पदार्थों के परिणमन में फेरफार का कर्ता किस आधार पर कहता है? ३५. अज्ञानी की मान्यता गलत क्यों है? ३६. वस्तु का परिणमन ज्ञान के आधीन क्यों नहीं है? ३७. अल्पज्ञ और रागी भी वस्तु के परिणमन में परिवर्तन नहीं कर सकता - यह बात आचार्यदेव ने कहाँ लिखी है? 2222 पर-पदार्थों के परिणमन की चिन्ता करना व्यर्थ है गद्यांश १६ क्रमबद्ध पर्याय के पोषक.......... ................जब तक अज्ञान है। (पृष्ठ २७ पैरा ६ से पृष्ठ २९ पैरा १ तक) विचार बिन्दु : १. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता-धर्ता नहीं है - यह सिद्धान्त ही जैन-दर्शन का मूल्य आधार है। ऐसी श्रद्धा होना ही क्रमबद्धपर्याय समझने का उद्देश्य है। २. जिसप्रकार नित्यता वस्तु का स्वभाव है, उसीप्रकार परिणमन करना भी वस्तु का सहज स्वभाव है, इसलिए प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्याय का कर्ता स्वयं है। अपने परिणमन के लिए उसे पर-द्रव्य के सहयोग की रञ्चमात्र भी 29
SR No.008357
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size244 KB
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