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क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन
क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका ४०. जैन-दर्शन में अकर्त्तावाद के मुख्य बिन्दु कौन-कौन से हैं? ४१. स्वकर्तृत्व, सहज कर्तृत्व और अकर्तृत्व की परिभाषायें बताइये? ४२. आत्मा अपनी पर्यायों का कर्ता किस प्रकार है?
प्रश्न :४३. द्रव्य किसे कहते हैं? उसका स्वभाव क्या है? ४४. द्रव्य की पर्याय को उसके स्वकाल से हटाना सम्भव क्यों नहीं है? ४५. दृष्टि स्वभाव-सन्मुख किस प्रकार होती है? ४६. अज्ञानी की दृष्टि अपनी पर्यायों को बदलने के विकल्प में क्यों उलझी रहती है?
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परिणमन करना वस्तु का सहज स्वभाव है
गद्यांश १८ इसी बात को यदि.....
...........भार को भार में। (पृष्ठ ३१ पैरा ५ से पृष्ठ ३३ पैरा ५ तक) विचार बिन्दु :
१. प्रत्येक द्रव्य द्रव्यत्व गुण के कारण परिणमन स्वभावी है। जो दवे अर्थात् परिणमन करे, उसे द्रव्य कहते हैं; अतः द्रव्य अपने नियमित प्रवाह क्रम में निरन्तर बहता रहता है, इसलिये वह अपने प्रवाह क्रम को भंग क्यों करेगा?
२. प्रत्येक पर्याय अपने स्वकाल में खचित है इसलिए उसे उसके स्वकाल से हटाना सम्भव नहीं है।
३. हमें उपर्युक्त वस्तु स्वरूप को सहज स्वीकार कर लेना चाहिए। यह स्वीकृति ही धर्म का आरम्भ है, क्योंकि इससे दृष्टि सहज ही स्वभाव सन्मुख हो जाती है। जो क्रमबद्ध पर्याय को स्वीकार करता है, उसकी पर्यायों में स्वभाव सन्मुखता का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। वस्तु-स्वरूप में ऐसा सुव्यवस्थित सुमेल है। प्रवचनसार गाथा १०७ में द्रव्य और गुण के समान पर्याय को भी एक समय का सत् कहा है।
४. अज्ञानी को अपने द्रव्य-गुण का ज्ञान नहीं है, इसलिए उसकी दृष्टि पर्यायों को बदलने के विकल्प में उलझी रहती है, द्रव्य-स्वभाव पर नहीं जाती है, अतः वह पर्यायमूढ़ बना रहता है। पर्याय को स्वकाल का सत् स्वीकार करने पर उन्हें बदलने का बोझा उतर जाता है, और दृष्टि निर्भार होकर अन्तर में प्रवेश करती है।
अज्ञानी की विपरीत मान्यता
गद्यांश १९ भार लेकर ऊपर चढ़ना............. .............कर्तृत्व थोप रहा है।
(पृष्ठ ३३ पैरा ६ से ३४ सम्पूर्ण) विचार बिन्दु :
१. जिसप्रकार अपनी शक्ति से अधिक बोझा ढोते हुए पर्वत पर चढ़ना असम्भव है; उसीप्रकार पर-कर्तृत्व का बोझा ढोते हुए दृष्टि का स्वभाव में प्रवेश करना असम्भव है।
२. स्वयं परिणमनशील इस जगत के परिणमन का उत्तरदायित्व हमारे माथे नहीं है; फिर भी अज्ञानी अपनी मिथ्या कल्पना से पर को परिणमित कराने के बोझ से दबा जा रहा है।
३. गम्भीरता से विचार करें तो इस शरीर परिणमन के कर्ता भी हम नहीं हैं, तो अन्य पदार्थों का परिणमन करने की बात ही कहाँ रही?
विशेष निर्देश :- पाठ्य पुस्तक में दिए गये तर्कों के आधार पर स्पष्ट करें कि हम शरीर के परिणमन के भी कर्ता नहीं हैं। प्रश्न :४७. अज्ञानी की दृष्टि, स्वभाव में प्रवेश क्यों नहीं कर सकती? ४८. हम अपने शरीर के परिणमन के कर्ता भी नहीं हैं - यह बात कैसे सिद्ध होती है?
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ज्ञान का परिणमन भी इच्छाधीन नहीं है?