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गुणस्थान विवेचन चौथे या पाँचवें गुणस्थानवर्ती साधक जीव उपरिम गुणस्थानों में गमन न करते हुए भी यथासमय शुद्धोपयोग की प्राप्ति करते रहते हैं; क्योंकि ये दोनों गुणस्थानवर्ती जीव मोक्षमार्गी हैं। शुद्धोपयोग के अभाव में भी उनको शुद्धपरिणति सतत बनी रहती है और शुद्धपरिणति को टिकाये रखने के लिए तथा उसे बढ़ाने के लिए एवं आनंद का भोग करने के लिए भी शुद्धोपयोग का पुरुषार्थ करते रहते हैं। ___यदि यथायोग्य काल के पश्चात् भी शुद्धोपयोग नहीं होगा तो उनके चौथा या पाँचवाँ गुणस्थान भी नहीं रहेगा; उन्हें मिथ्यात्व गुणस्थान की प्राप्ति हो जावेगी; यह वस्तुस्वरूप है। इसलिए चौथे-पाँचवें गुणस्थान में जीव के पुरुषार्थ के अनुसार कदाचित् अशुभोपयोपयोग, शुभोपयोग अथवा शुद्धोपयोग होता है। ___छठवें गुणस्थान का स्वरूप ही अलग ढंग का है। इस गुणस्थान का स्वरूप ही बुद्धिपूर्वक शुभोपयोगरूप है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती शुभोपयोगी भावलिंगी मुनिराज यदि शुद्धोपयोग करते हैं तो उनका गुणस्थान सातवाँ अप्रमत्तसंयत हो जाता है। शुद्धोपयोग से छूटते हैं/गिरते हैं, तो वे ही अप्रमत्त मुनिराज प्रमत्तसंयत अर्थात् शुभोपयोगी हो जाते हैं।
किसी भी जीव को मोक्षमार्गी बने रहने के लिए उसे वीतरागता होना आवश्यक है। वह वीतरागता दो कारणों से जीव के पास या साथ रहती है - एक तो शुद्धोपयोग से और दूसरे शुद्धपरिणति से।
छठवें गुणस्थान में वीतरागतारूप मोक्षमार्ग अर्थात् शुद्धपरिणति शुभोपयोग के साथ-साथ सतत रहती अवश्य है; पर छठवाँ गुणस्थान भावलिंगी मुनिराज का होने पर भी उसका स्वरूप ही व्यक्त शुभोपयोगरूप है; इसलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थान में शुभोपयोग ही होता है, शुद्धोपयोग नहीं।
सातवें गुणस्थान में और उसके आगे के भी सभी गुणस्थानों में मात्र शुद्धोपयोग ही रहता है; अन्य कोई उपयोग होता ही नहीं। छठवें से मुनिजीवन है; इससे यह स्वयमेव निर्णय हो जाता है कि मुनिजीवन में मात्र दो ही उपयोग हैं - एक शुद्धोपयोग और दूसरा शुभोपयोग ।
प्रमत्तविरत गुणस्थान
१५३ हम द्रव्यानुयोग की अपेक्षा गुणस्थानों का विभाजन निम्नप्रकार कर सकते हैं - (१) मिथ्यात्व गुणस्थान से तीसरे मिश्र गुणस्थानपर्यंत नियम से शुभ और अशुभोपयोग ही होते हैं। (२) चौथे तथा पाँचवें गुणस्थानों में शुभ, अशुभ और शुद्धोपयोग - तीन उपयोग रह सकते हैं। (३) छठवें गुणस्थान में मात्र शुभोपयोग। और सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के सर्व गुणस्थानों में मात्र शुद्धोपयोग ही रहता है। विशेष अपेक्षा विचार -
१. प्रमत्तसंयत यह छठवाँ गुणस्थान शुद्धपरिणति सहित शुभोपयोगरूप है। यद्यपि यह दशा मुनिजीवन में अवश्यंभावी है, तथापि बंधकारक है। नाटक समयसार (मोक्षद्वार छन्द ४०) में इसे जगपंथ कहा है, जो निम्नप्रकार से है -
ता कारण जगपंथ इत, उत शिवमारग जोर।
परमादी जग को धुकै, अपरमादि शिव ओर ।। अर्थ - इसलिए प्रमाद संसार का कारण है और अनुभव मोक्ष का कारण है। प्रमादी जीव संसार की ओर देखते हैं और अप्रमादी जीव मोक्ष की तरफ देखते हैं।
मुक्ति प्राप्त करने के पूर्व अनिवार्य गुणस्थानों के संबंध में यहाँ थोड़ा विचार करते हैं -
१. अनेक जीव दूसरे सासादन गुणस्थान को प्राप्त किए बिना भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं; क्योंकि जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व के साथ चौथे आदि ऊपर के गुणस्थानों से पतित होता है, वही दूसरे गुणस्थान में आता है। ऐसे उपरिम गुणस्थानों से सासादन में पतित न होनेवाले अनेक जीव मोक्ष जा सकते हैं। अत: दूसरा गुणस्थान अनिवार्य नहीं है।
२. तीसरा गुणस्थान भी अनिवार्य नहीं है; इस तीसरे गुणस्थान में प्रवेश किए बिना भी मुक्ति संभव है; क्योंकि यदि जीव पहले गुणस्थान से ही चौथे में आता है अथवा पाँचवें, सातवें में आता है तो छठवेंसातवें में आत्मानंद का रसपान करते-करते नीचे गमन किए बिना ही