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गुणस्थान विवेचन मुक्ति प्राप्त कर सकता है। अत: तीसरा गुणस्थान भी अनिवार्य नहीं है।
३. चौथे अविरतसम्यक्त्वगुणस्थान की प्राप्ति के बिना भी जीव मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है; क्योंकि अनादि मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे सातवें अप्रमत्त में आकर छठवें-सातवें में झूलते हुए आगे श्रेणी मांडकर मुक्त हो सकता है। अत: मुक्ति के पूर्व अविरतसम्यक्त्व चौथे गुणस्थान की अनिवार्यता नहीं है।
४. यदि द्रव्यलिंगी मुनिराज अनादि मिथ्यात्व गुणस्थान से ही सातवें अप्रमत्त संयत में जाते हैं और छठवें-सातवें में हजारों बार झूलते हुए श्रेणी मांडकर मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं तो उन्हें पाँचवाँ देशविरत गुणस्थान भी अनिवार्य नहीं है।
५. यदि मुनिराज उपशमश्रेणी पर आरोहण करते हैं तो ही उपशांत मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान की प्राप्ति होती है। जो मुनिराज उपशमश्रेणी पर आरोहण न करते हुए मात्र क्षपकश्रेणी पर ही आरोहण करते हैं तो उन्हें उपशांतमोह गुणस्थान की प्राप्ति होती ही नहीं; इसलिए ग्यारहवाँ गुणस्थान भी अनिवार्य नहीं है और उपशमश्रेणी के प्रथम तीन गुणस्थान भी अनिवार्य नहीं हैं। ___ इस तरह संक्षेप में दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, ग्यारहवाँ - इन पाँचों गुणस्थानों के बिना तो कदाचित् जीव मुक्ति प्राप्त कर सकता है; लेकिन छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान के बिना तो कोई जीव मुक्ति प्राप्त कर ही नहीं सकता अर्थात् मिथ्यात्व, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, क्षपकश्रेणी के चारों गुणस्थान, सयोगकेवली और अयोगकेवली इन नव गुणस्थानों के बिना जीव मुक्त नहीं हो सकता।
६१. प्रश्न : इस प्रमत्तसंयत गुणस्थान को बंधनकारक, शुभोपयोगरूप, जगपंथ और कथंचित् आकुलता उत्पादक जानते हुए भी भावलिंगी मुनिराज इस गुणस्थान में क्यों आते हैं ?
उत्तर : १. मोक्षप्राप्ति का क्रम किसी भी जीव के इच्छानुसार नहीं
प्रमत्तविरत गुणस्थान
१५५ होता, जैसा वस्तुस्वरूप है, उसके अनुसार ही होता है। वह वस्तुस्वरूप तथा क्रम अनंत सर्वज्ञ भगवंतों ने जाना है और उसे दिव्यध्वनि में कहा है। ___ मुनिजीवन में सबसे पहले शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्तविरत गुणस्थान की प्राप्ति होती है। तदनंतर सातवें गुणस्थान से ही सीधे क्षपकश्रेणी आरोहण करके मुक्त होने की व्यवस्था नहीं है। शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्तविरत दशा में यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त काल व्यतीत होते ही पर्यायगत योग्यता के कारण तथा यथायोग्य कर्मोदय के निमित्त से शुभोपयोगरूप प्रमत्तविरत गुणस्थान में आना अनिवार्य रहता है।
मुनिअवस्था में मात्र एक अंतर्मुहर्त रहकर ही मुक्ति प्राप्त करनेवाले भरत आदि को भी छठवें गुणस्थान में आना अनिवार्य ही था । अंतर्मुहूर्त में मुक्ति पानेवाले मुनिराज भी श्रेणी-आरोहण के पहले तैयारी की दशा में तो एक अंतर्मुहूर्त में हजारों बार छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलते हैं अर्थात् उन्हें भी छठवें गुणस्थान में आना पड़ता है, वे आना नहीं चाहते । मोक्षप्राप्ति के पहले का वस्तुगत क्रम ही ऐसा है। आगम प्रमाण से वस्त का स्वरूप समझने से ज्ञान में यथार्थता एवं निर्मलता की प्राप्ति जरूर होती है।
जगपंथ का अर्थ संसार का मार्ग है अर्थात् छठवें गुणस्थान का शुभोपयोगरूप भाव अर्थात् शुभपरिणाम बंधरूप होने से संसारमार्ग है। जैसे अग्नि में शीतलता की खोज व्यर्थ है, वैसे शुभ में वीतरागतारूप मोक्षमार्ग ढूँढना व्यर्थ है।
२. आचार्यकृत सभी शास्त्र-लेखन, उपदेश, दीक्षा-शिक्षा आदि प्रशस्त व्यवहार कार्य इस छठवें प्रमत्तविरत गुणस्थान में ही होते हैं। मुनिजीवन के छठवें गुणस्थानवर्ती महामुनिराज को संज्वलन कषाय तथा हास्यादि नौ नोकषायों के तीव्र उदय में नियम से हेय बुद्धिपूर्वक शुभ परिणाम होते ही हैं; क्योंकि मुनिजीवन में (स्थूलरूप से) अशुभोपयोग के लिए अवकाश ही नहीं है। अत: शुभ परिणाम में बुद्धिपूर्वक होनेवाले कार्य भी मोक्षमार्ग के अनुकूल ही होना चाहिए।
वास्तव में तो गृहस्थ-जीवन में जो कुछ शुभ परिणाम या पुण्यरूप कार्य होते हैं, वे सब अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषायों के मंद उदय में होते हैं और मुनिजीवन में शुभ परिणाम अथवा प्रशस्त/