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गुणस्थान विवेचन से तथा उसीसमय अनंतानुबंधी कषाय कर्म का उदय भी आ जाने से दूसरे सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में गमन करते हैं और द्रव्यलिंगी मुनिराज बन जाते हैं। तीसरे एवं दूसरे गुणस्थान का काल अल्प होने से इनके साथ द्रव्यलिंगीरूप व्यवहार गौण रहता है।
६. कोई प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी मुनिराज छठवें से सीधे मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय कर्म के उदय होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में भी गमन करते हैं अर्थात् जो पहले समय में भावलिंगी मुनिराज थे, वे ही अपने पुरुषार्थ की विपरीतता के कारण विशिष्ट वीतरागतारूप धर्म से च्युत हो जाने से प्रथम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज हो जाते हैं।
देखो, परिणामों की विचित्रता ! बाह्य में द्रव्यलिंगरूप मुनिपना तो यथार्थरूप से वैसा का वैसा ही है; लेकिन अंदर में न मुनियोग्य धर्म (शुद्धता) रहा, न व्रती श्रावक के योग्य, न सम्यग्दृष्टि के योग्य परिणाम।
आगमन - इस प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आगमन मात्र अप्रमत्तसंयत से ही होता है। अपूर्वकरण आदि उपरिम किसी भी गुणस्थानों से सीधे छठवें गुणस्थान में आगमन नहीं होता।
नीचे के पाँचों गुणस्थानों में से भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आगमन नहीं होता।
सातवें शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से ही शुभोपयोगरूप छठवें गुणस्थान में आगमन का नियम है।
५८. प्रश्न : छठवें गुणस्थान को शुभोपयोगरूप ही क्यों कहा? और नीचे की ओर पतन होते समय प्राप्त होने वाला गुणस्थान भी क्यों कहा?
उत्तर : छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तीन कषाय चौकड़ी का अनुदय होने से शुद्ध परिणतिरूप वीतरागता तो है; परन्तु यहाँ पर मुनिराज के संज्वलन कषाय के तीव्र उदय से बुद्धिपूर्वक शुभोपयोगरूप भाव है, अत: उसे शुभोपयोगरूप कहा है। मुनिजीवन में दो ही उपयोग मुख्यता से होते हैं - (१) शुद्धोपयोग और (२) शुभोपयोग ।
निर्विकल्प ध्यानरूप अवस्था, जो अप्रमत्तदशा है; उसे शुद्धोपयोग
प्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं। ध्यान से च्युत होने पर सविकल्प अवस्था शुभोपयोगरूप है; यही प्रमत्तसंयत दशा है। ध्यान से च्युत होना कहो अथवा नीचे की ओर पतन कहो - दोनों का अर्थ एक ही है। सातवें की अपेक्षा छठवाँ गुणस्थान निम्नस्तर का है; अत: वह नीचे की ओर पतन होते समय प्राप्त होता है।
नीचे की ओर पतन का अर्थ प्रमत्तसंयत अवस्था मुनि अवस्था ही नहीं है; अथवा वह भ्रष्ट मुनि अवस्था है - ऐसा भी नहीं है । मुनिजीवन ही ऐसा होता है कि जिसमें ध्यान रहित अवस्था होना उसका व्यवहारस्वरूप कहलाता है, उसे शुभोपयोग भी कहते हैं और यह शुभोपयोग, शुद्धोपयोग से भिन्न व निम्नकोटि का है।
५९. प्रश्न : क्या छठवें गुणस्थान में आर्तध्यान भी होता है ?
उत्तर : हाँ, छठवें गुणस्थान में आर्तध्यान होता है; परन्तु वह मुख्यरूप से शुभभावरूप होता है और कदाचित् अशुभोपयोगरूप भी हो सकता है; तथापि वह भी हेयबुद्धि से होता है।
६०. प्रश्न : चौथे अविरतसम्यक्त्व और पाँचवें देशविरत गुणस्थानों में स्वानुभूतिरूप शुद्धोपयोग होता है। चौथे, पाँचवें गुणस्थानों से भी ऊपर के छठवें गुणस्थान में मात्र शुभोपयोग ही होता है, शुद्धोपयोग नहीं; यह बात कैसी ?
उत्तर : चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शनरूप धर्म की उत्पत्ति होती है, वह करणलब्धि के बिना नहीं होती। अत: चौथे गुणस्थान की उत्पत्ति के पूर्व मिथ्यात्व अवस्था में ही जीव आत्मध्यान का बुद्धिपूर्वक प्रयास करता है
और भेदविज्ञान से यथार्थ तत्त्वज्ञान की भावभासनापूर्वक शुद्धोपयोग के काल में ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। ___ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में शुभ, अशुभ और शुद्ध तीनों उपयोग होते हैं। तथा जिसप्रकार चतुर्थ गुणस्थान से शुद्धोपयोग के साथ पंचम गुणस्थान में आगमन होता है। वैसे ही पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज शुद्धोपयोग से ही सातवें गुणस्थान में गमन करते हैं।