SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान विवेचन १०५. प्रश्न : क्या कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम के निमित्त से शुद्ध भाव होते हैं अथवा आत्मा के शुद्ध भावों से कर्मों के क्षयादि होते हैं ? उत्तर : दोनों कथन अपनी-अपनी अपेक्षा से सही हैं। पहला कथन कर्म की ओर से किया गया है तथा दूसरा कथन जीव के भावों की ओर से किया गया है। . कर्म के उपशमादि कार्य और जीव के औपशमिकादिक भाव एक ही समय में होते हैं; इसलिए दोनों कथनों का भाव एक ही है। . वास्तविक देखा जाय तो पुद्गल कर्मों में उत्पाद-व्यय पुद्गल के उपादान से होता है और आत्म-परिणामों में उत्पाद-व्यय आत्मरूप उपादान से होता है। दोनों कथन अपनी-अपनी अपेक्षा से सही हैं। • अपराध मात्र जीव का है, पुद्गल अर्थात् कर्म का नहीं । अपराध का अभाव भी जीव ही करता है। इसलिए जीव को ही उपदेश दिया जाता है। १०६. प्रश्न : विग्रहगति में आत्मा कौन-कौन से गुणस्थानों में होता है? किन गणस्थानों के परिणामों के साथ जीव परभव में जाता है? उत्तर : प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ गुणस्थान के परिणामों के साथ जीव परभव में जाता है। अर्थात् विग्रह गति में ये तीन ही गुणस्थान होते हैं। १०७. प्रश्न : कौन से गुणस्थान में जीव की मृत्यु नहीं होती? उत्तर : तीसरे, बारहवें एवं तेरहवें गुणस्थान में जीव की मृत्यु नहीं होती। कहा भी है - मिश्र, क्षीण, सजोग तीन में मरन न पावै । .क्षपक श्रेणी के किसी भी गुणस्थान में मरण नहीं होता। • उपशम श्रेणी के आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग में भी मरण नहीं होता। • पाँचवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत के सर्व गुणस्थानों में जीव का मरण तो हो सकता है; लेकिन पाँचवें से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत के गुणस्थानों के परिणामों को साथ लेकर विग्रह-गति में नहीं जाता। मरण होते ही विग्रहगति के प्रथम समय में चौथा गुणस्थान हो जाता है। १०८. प्रश्न : संसार में किन-किन गुणस्थानों का विरह नहीं होता? उत्तर : पहला, चौथा, पाँचवाँ, छठवाँ, सातवाँ और तेरहवाँ इन गुणस्थानों का संसार में कभी भी विरह नहीं होता अर्थात् इन गुणस्थानों में जीव सदा विद्यमान रहते ही हैं। महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर १०९. प्रश्न : अप्रतिपाति गुणस्थान कौन-कौन से हैं। उत्तर :बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँ एवं क्षपकश्रेणी का आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ ये गुणस्थान अप्रतिपाति हैं। अर्थात् इन गुणस्थानों से जीव नीचे न जाकर ऊपर ही ऊपर चढ़ते हैं। गिरने का नाम प्रतिपात और नहीं गिरने का नाम अप्रतिपात कहलाता है। ११०. प्रश्न : गुणस्थान के ज्ञान से क्या लाभ है ? उत्तर : १)१३ वें व १४ वें गुणस्थानवर्ती ही अरहंत भगवान होते हैं। गुणस्थानातीत शुद्ध आत्मा ही सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। इसतरह गणस्थान के ज्ञान से ही सच्चे अर्थात् वीतराग एवं सर्वज्ञ भगवान का पक्का निर्णय होता है। २) तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरहंत भगवान के परम औदारिक शरीर के सर्वांग से दिव्यध्वनि खिरती है। दिव्यध्वनि से ही यथार्थ तत्त्व स्पष्ट होता है। दिव्यध्वनि का विषय ही सच्चे शास्त्र में लिपिबद्ध रहता है। अतः गुणस्थान के ज्ञान से ही सच्चे शास्त्र/तत्त्व की जानकारी प्राप्त होती है। ३) तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त वीतरागता प्रगट करके प्रचुर स्वसंवेदन के आनंद के भोगी ही सच्चे गुरु होते हैं। ऐसे गुरु छठवेंसातवें गुणस्थानवर्ती रहते हैं अथवा ये महापुरुष आठवें गुणस्थान से उपरिम गुणस्थान में भी विराजते हैं। इसलिए गुणस्थान के ज्ञान से ही सच्चे साधु का स्पष्ट ज्ञान होता है। १११. प्रश्न : गणस्थान के ज्ञान से क्या मात्र देव, शास्त्र, गुरु का ही यथार्थ निर्णय होता है अथवा हमें व्यक्तिगत भी कुछ लाभ होता है ? उत्तर : क्यों नहीं ? देव-शास्त्र-गुरु के सम्बन्ध में भी जो सच्चा निःशंक निर्णय एवं यथार्थ प्रतीति होती है, यह भी तो हमें ही व्यक्तिगत लाभ होता है, देव-शास्त्र-गुरु को नहीं। देव तथा गुरु के गुणस्थान की जानकारी के साथ हमें अपना स्वयं का गुणस्थान कौनसा है ? विराधक गुणस्थान से साधक गुणस्थानों की प्राप्ति अर्थात् मोक्षमार्ग की प्राप्ति कैसे होगी? तथा हमें क्या करना आवश्यक है? - इन सबका ज्ञान होता है।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy