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गुणस्थान विवेचन
उत्तर : कषाययोग और अकषाययोग ये दो भेद हैं। आलम्बन की अपेक्षा से मनोयोग, वचनयोग और काययोग ऐसे तीन भेद होते हैं।
• मनोयोग के ४, वचनयोग के ४ और काययोग के ७ ऐसे निमित्त की अपेक्षा से १५ भेद भी होते हैं।
• वास्तविकरूप से देखा जाय तो योग एक ही प्रकार का है।
९९. प्रश्न: गमनागमन का क्या अर्थ है ?
उत्तर : गमन का अर्थ जाना, आगमन का अर्थ है आना ।
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• जीव के एक गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान में जाने-आने के अर्थ में गमनागमन शब्द का प्रयोग किया जाता है। (गो.क. का. गाथा ५५६ से ५५९) १००. प्रश्न : शुभोपयोग किसे कहते हैं ?
उत्तर : जो उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन, परम भट्टारक देवाधिदेव परमेश्वर ऐसे अरहंत, सिद्ध तथा साधु की श्रद्धा करने में व समस्त जीव समूह की अनुकंपा का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह शुभोपयोग है। (प्रवचनसार गाथा-१५७)
१०१. प्रश्न : अशुभोपयोग किसे कहते हैं ?
उत्तर : जो उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन परम भट्टारक देवाधिदेव परमेश्वर ऐसे अरहंत, सिद्ध तथा साधु के अतिरिक्त अन्य उन्मार्ग की श्रद्धा करने में तथा विषय, कषाय, कुश्रवण, कुविचार, कुसंग और उग्रता का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह अशुभोपयोग है। (प्रवचनसार गाथा - १५ की टीका ) १०२. प्रश्न : शुद्धोपयोग किसे कहते हैं ?
उत्तर : १. जो उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन परद्रव्य में मध्यस्थ होता हुआ परद्रव्यानुसार परिणति के आधीन न होने से शुभ तथा अशुभरूप अशुद्धोपयोग से मुक्त होकर मात्र स्वद्रव्यानुसार परिणति को ग्रहण करता है, वह शुद्धोपयोग है। (प्रवचनसार गाथा १५९ की टीका)
२. इष्ट-अनिष्ट बुद्धि के अभाव ज्ञान ही में उपयोग लागै, ताको शुद्धोपयोग कहिए । सोही चारित्र है। (जयचंदजी छाबड़ा मोक्षपाहुड ७२ गाथा)
३. चित्तनिरोध, शुद्धोपयोग, साम्य, स्वास्थ्य, समाधि और योग ये सर्व शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। (पद्मनंदि पंचविंशतिका, गाथा - ६४)
महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
४. उपयोगरूप (ज्ञान - दर्शन) वीतरागता को शुद्धोपयोग कहते हैं । शुद्धोपयोग के संबंध में अत्यंत संतुलित और स्पष्ट निम्न भाव पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र के पृष्ठ २८६ पर दिया है -
“करणानुयोग में तो रागादि रहित शुद्धोपयोग यथाख्यात चारित्र होने पर होता है, वह मोह के नाश से स्वयमेव होगा; निचली अवस्थावाला (बारहवें क्षीणमोह और ग्यारहवें उपशांत मोह गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानवाले) शुद्धोपयोग का साधन कैसे करे ? तथा द्रव्यानुयोग में शुद्धोपयोग करने ही मुख्य उपदेश है।
इसलिए वहाँ छद्मस्थ जिस काल में बुद्धिगोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्यरूप परिणामों को छोड़कर (श्रावक चौथे-पाँचवें गुणस्थानवर्ती साधक) आत्मानुभवनादि कार्यों में प्रवर्ते, उस काल उसे शुद्धोपयोगी कहते हैं। यद्यपि यहाँ केवलज्ञानगोचर सूक्ष्म रागादिक हैं; तथापि उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की; अपनी बुद्धिगोचर रागादिक छोड़ता है, इस अपेक्षा से उसे चौथे, पंचमादि गुणस्थानों में शुद्धोपयोगी कहा है।"
मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ क्रमांक २८५ पर कहा है....." धर्मानुरागरूप परिणाम वह शुभोपयोग, पापानुरागरूप व द्वेषरूप परिणाम वह अशुभोपयोग और राग-द्वेषरहित परिणाम वह शुद्धोपयोग ।”
१०३. प्रश्न : शुद्ध परिणति किसे कहते हैं ?
उत्तर : शुद्ध शब्द का अर्थ मोह, राग, द्वेष आदि विकारी भावों से रहित ऐसा वीतरागरूप परिणाम ।
• आत्मा के चारित्र गुण की शुद्ध पर्याय को शुद्धपरिणति कहते हैं । बुद्धिपूर्वक शुभाशुभ उपयोग के काल में उपयोग रहित चारित्र गुण की वीतराग अवस्था को शुद्ध परिणति कहते हैं ।
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१०४. प्रश्न: अधःकरणादि तीन करण कितने स्थान पर होते हैं ? उत्तर : औपशमिक एवं क्षायिक सम्यक्त्व के लिए, अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क की विसंयोजना के लिए और चारित्रमोहनीय के २१ प्रकृतियों की उपशमना तथा क्षपणा करने के लिए अधःकरणादि तीनों करण होते हैं। (विशेष खुलासा मिथ्यात्व गुणस्थान के विभाग के अन्त में देखें ।)