SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान भूमिका अध्याय तीसरा गुणस्थान विवेचन गुणस्थान : भूमिका ____ अनादिकाल से लेकर आजतक अक्षय अनंत सर्वज्ञ भगवान हो गये हैं। अभी वर्तमानकाल में भी विदेहक्षेत्र में लाखों सर्वज्ञ भगवान विद्यमान हैं और भविष्य में भी अनंत जीव सर्वज्ञ भगवान होंगे। उन सर्व अनंतानंत सर्वज्ञ भगवन्तों की अलौकिक दिव्यध्वनि में जो वस्तुस्वभाव का वर्णन आया है, उसे गणधर देव ने चार अनुयोगों में विभक्त किया हैजो क्रमशः इसप्रकार है १. प्रथमानुयोग, २. करणानुयोग, ३. चरणानुयोग, ४. द्रव्यानुयोग । चारों अनुयोगों को सरल भाषा में निम्नप्रकार कह सकते हैं - जिन भव्य जीवों ने द्रव्यानुयोग के अनुसार निज ज्ञायक आत्मा का आश्रय लिया है, उनके ही करणानुयोगानुसार कर्मों के उपशमादि होते हैं। उनका ही बाहा जीवन चरणानुयोग के अनुसार सदाचारमय हो जाता है और वे ही प्रथमानुयोग के अनुसार महापुरुष कहलाते हैं। इसतरह द्रव्यानुयोग दीपक है जो सम्यग्ज्ञान को आलोकित कर अन्य तीनों अनुयोगों को प्रकाशित करने में मुख्य भूमिका निभाता है। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, दूसरा अध्याय) अनुयोगों की उपयोगिता - १. अपने को वीतरागी बनाना हो तो महापुरुषों को आदर्श बनाइये। २.चित्त में ज्ञान का सौरभ महकाना हो तो कर्मसिद्धान्तको अवलोकिये। ३. अपने जीवन को पवित्र बनाना हो तो महापुरुषों का आचरण अपनाइये। ४. श्रद्धा में निःशंकता लाना हो तो वस्तुव्यवस्था को जानिये। यहाँ प्रकृत विषय करणानुयोग है और विवक्षित विषय गुणस्थान संबंधी चर्चा है। करणानुयोग से लाभ - १. सूक्ष्म परमाणु आदि, अंतरित राम-रावणादि, दूरवर्ती सुमेरू पर्वतादि पदार्थ का ज्ञाता कोई अवश्य होना चाहिए; क्योंकि वे पदार्थ अनुमान ज्ञान के विषय हैं। अत: जगत में कोई न कोई सर्वज्ञ अवश्य है - ऐसा निर्णय होता है। २.सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रतिपादित सूक्ष्म तथापि बुद्धिगम्य पदार्थों का ज्ञान होता है एवं क्रमबद्धपर्याय /क्रमनियमितपर्याय का निर्णय होता है। ३. करणानुयोग के अभ्यास से कषाय की मंदता होती है एवं ज्ञान में निर्मलता आती है। ४. जीवपरिणाम और कर्मबंधादि के निमित्त-नैमित्तिक संबंध का यथार्थ ज्ञान होता है और कर्ता-कर्म संबंधी भ्रांति का नाश हो जाता है। ५. भूमिका के अनुसार होनेवाले परिणामों का और तदनुकूल शुभाशुभ आचरण का विवेक जागृत होता है। ६. यथापदवी निमित्तरूप होनेवाले कर्मों के उपशमादि का सत्य निर्णय हो जाता है। कर्मों की बंध, सत्ता, उदय आदि दस अवस्थाओं का ज्ञान होता है। ७. भविष्य में होनेवाली अशुद्धता तथा अनिष्ट पर्यायों से बचने की प्रेरणा मिलती है। ८. केवलज्ञानगम्य सूक्ष्म तथा आश्चर्यकारक विषयों का ज्ञान होने से सर्वज्ञ भगवान और सर्वज्ञस्वभावी अपने आत्मा की महिमा आती है। ९. करणानुयोग में वर्णित चौदह गुणस्थानों; चौदह मार्गणा, चौदह, सत्तावन, अट्ठाणवे और चार सौ छह जीवसमासों, करोड़ों कुल, ८४ लाख योनि आदि का ज्ञान होने से जीवदया का भाव उत्पन्न होता है। चौंसठ अवगाहना स्थान आदि अनेकानेक अनुपम विषयों के विशेष ज्ञान से आनंद होता है। (गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा : ७७) १०. आत्मस्वरूप को भूलकर मिथ्यात्व, अज्ञान एवं कषायों के आधीन होने से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप संसार में जीव दुःख
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy