________________ गुणस्थान विवेचन जिनेन्द्रकथित शाखाभ्यास से लाभ 281 पाँच कारणों से सम्यक्त्व का विनाश होता है (दोहा) ग्यान-गरव मति मंदता, निठुर वचन उदगार / रुद्रभाव आलस दसा, नास पंच परकार / / 37 / / अर्थ :- ज्ञान का अभिमान, बुद्धि की हीनता, निर्दय वचनों का भाषण, क्रोध परिणाम और प्रमाद ये पाँच सम्यक्त्व के घातक हैं। श्रावक के इक्कीस गुण (सवैया इकतीसा) लज्जावंत दयावंत प्रसंत प्रतीतवंत, परदोष को ढकैया पर-उपगारी है। सौमदृष्टि गुनग्राही गरिष्ट सबकौं इष्ट, शिष्टपक्षी मिष्टवादी दीरघ विचारी है।। विशेषग्य रसग्य कृतग्य तग्य धरमग्य, नदीनन अभिमानी मध्य विवहारी है। सहज विनीत पापक्रिया सौं अतीत ऐसौ, श्रावक पुनीत इकवीस गुनधारी है / / 54 / / अर्थ :- लज्जा, दया, मंदकषाय, श्रद्धा, दूसरों के दोष ढाँकना, परोपकार, सौम्यदृष्टि, गुणग्राहकता, सहनशीलता, सर्वप्रियता, सत्य पक्ष, मिष्टवचन, अग्रसोची, विशेषज्ञानी, शास्त्रज्ञान की मर्मज्ञता, कृतज्ञता, तत्त्वज्ञानी, धर्मात्मा, न दीन न अभिमानीमध्य व्यवहारी, स्वाभाविक विनयवान, पापाचरण से रहित - ऐसे इक्कीस पवित्र गुण श्रावकों को ग्रहण करना चाहिये। उपशमश्रेणी की अपेक्षा गुणस्थानों का काल (दोहा) षट सातै आ3 नर्वे, दस एकादस थान / अंतरमुहरत एक वा, एक समै थिति जान / / 103 / / अर्थ :- उपशम श्रेणी की अपेक्षा छठवें, सातवें, आठवें, नववें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त वा जघन्य काल एक समय है।। क्षपक श्रेणी में गुणस्थानों का काल (दोहा) छपकनि आउँ नर्वे, दस अर वलि बार। थिति उत्कृष्ट जघन्य भी, अंतरमुहूर्त काल / / 104 / / अर्थ :-क्षपकश्रेणी में आठवें, नववें, दसवें और बारहवें गुणस्थान की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त तथा जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त है। -समयसार नाटक (गुणस्थानाधिकार) जिनेन्द्रकथित शास्त्राभ्यास से लाभ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार : अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना) 1. माया, मिथ्यात्व, निदान - इन तीन शल्यों का ज्ञानाभ्यास से नाश होता है। 2. ज्ञान के अभ्यास से ही मन स्थिर होता है। 3. अनेक प्रकार के दुःखदायक विकल्प नष्ट हो जाते हैं। 4. शास्त्राभ्यास से ही धर्मध्यान व शुक्लध्यान में अचल होकर बैठा जाता है। 5. ज्ञानाभ्यास से ही जीव व्रत-संयम से चलायमान नहीं होते। 6. जिनेन्द्र का शासन प्रवर्तता है। अशुभ कमों का नाश होता है। 7. जिनधर्म की प्रभावना होती है। 8. कषायों का अभाव हो जाता है। 9. ज्ञान के अभ्यास से ही लोगों के हृदय में पूर्व का संचित कर रखा हुआ पापरूप ऋण नष्ट हो जाता है। 10. अज्ञानी जिस कर्म को घोर तप करके कोटि पूर्व वर्षों में खिपाता है, उस कर्म को ज्ञानी अंतर्मुहर्त में ही खिपा देता है। 11. ज्ञान के प्रभाव से ही जीव समस्त विषयों की वाञ्छा से रहित होकर संतोष धारण करते हैं। 12. शास्त्राभ्यास से ही उत्तम क्षमादि गुण प्रगट होते हैं। 13. भक्ष्य-अभक्ष्य का, योग्य-अयोग्य का, त्यागने-ग्रहण करने योग्य का विचार होता है। 14. ज्ञान बिना परमार्थ और व्यवहार दोनों नष्ट होते हैं। 15. ज्ञान के समान कोई धन नहीं है और ज्ञानदान समान कोई अन्य दान नहीं है। 16. दुःखित जीव को सदा ज्ञान ही शरण अर्थात् आधार है। 17. ज्ञान ही स्वदेश में एवं परदेश में सदा आदर कराने वाला परम धन है। 18. ज्ञान धन को कोई चोर चुरा नहीं सकता, लूटने वाला लूट नहीं सकता,खोंसनेवाला खोंस नहीं सकता। 19. ज्ञान किसी को देने से घटता नहीं है, जो ज्ञान-दान देता है; उसका ज्ञान बढ़ता जाता है। 20. ज्ञान से ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। 21. ज्ञान से ही मोक्ष प्रगट होता है।