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________________ गुणस्थान विवेचन करणानुयोग के व्याख्यान का विधान तथा कहीं जिसकी व्यक्तता कुछ भासित नहीं होती; तथापि सूक्ष्मशक्ति के सद्भाव से उसका वहाँ अस्तित्व कहा है। जैसे - मुनि के अब्रह्म कार्य कुछ नहीं है; तथापि नौवें गुणस्थान पर्यन्त मैथुन संज्ञा कही है। अहमिन्द्रों के दुःख का कारण व्यक्त नहीं है; तथापि कदाचित् असाता का उदय कहा है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना। तथा करणानुयोग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिक धर्म का निरूपण कर्मप्रकृतियों के उपशमादिक की अपेक्षासहित सुक्ष्मशक्ति जैसे पायी जाती है वैसे गुणस्थानादि में निरूपण करता है व सम्यग्दर्शनादि के विषयभूत जीवादिकों का भी निरूपण सूक्ष्मभेदादि सहित करता है। यहाँ कोई करणानुयोग के अनुसार आप उद्यम करे तो हो नहीं सकता; करणानुयोग में तो यथार्थ पदार्थ बतलाने का मुख्य प्रयोजन है, आचरण कराने की मुख्यता नहीं है। इसलिये यह तो चरणानुयोगादिक के अनुसार प्रवर्तन करे, उससे जो कार्य होना है वह स्वयमेव ही होता है। जैसे - आप कर्मों के उपशमादि करना चाहे तो कैसे होंगे? आप तो तत्त्वादिक का निश्चय करने का उद्यम करे; उससे ही उपशमादि सम्यक्त्व होते हैं। इसीप्रकार अन्यत्र जानना । एक अन्तर्मुहूर्त में ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर क्रमशः मिथ्यादृष्टि होता है और चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न करता है। सो ऐसे सम्यक्त्वादि के सूक्ष्मभाव बुद्धिगोचर नहीं होते। इसलिये करणानुयोग के अनुसार जैसे का तैसा जान तो लें, परन्तु प्रवृत्ति बुद्धिगोचर जैसे भला हो वैसी करे। तथा करणानुयोग में भी कहीं उपदेश की मुख्यता सहित व्याख्यान होता है, उसे सर्वथा उसीप्रकार नहीं मानना । जैसे - हिंसादिक के उपाय को कमतिज्ञान कहा है, अन्य मतादिक के शास्त्राभ्यास को कुश्रुतज्ञान कहा है; बुरा दिखे, भला न दिखे, उसे विभंगज्ञान कहा है; सो इनको छोड़ने के अर्थ उपदेश द्वारा ऐसा कहा है। तारतम्य से मिथ्यादृष्टि के सभी ज्ञान कुज्ञान हैं, सम्यग्दृष्टि के सभी ज्ञान सुज्ञान हैं। इसी प्रकार अन्यत्र जानना। -मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २७६
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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