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गुणस्थान विवेचन दर्शनावरण को कहते हैं, उनमें जो रहते हैं उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। जो वीतराग होते हुए भी छद्मस्थ होते हैं, उन्हें वीतरागछद्मस्थ कहते हैं। इसमें
आये हुए वीतराग विशेषण से दशम गुणस्थान तक के सराग छद्मस्थों का निराकरण समझना चाहिये। जो उपशान्त कषाय होते हुए भी वीतराग छद्मस्थ होते हैं, उन्हें उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ कहते हैं। इससे (उपशान्तकषाय विशेषण से) आगे के गुणस्थानों का निराकरण समझना चाहिये।
इस गुणस्थान में संपूर्ण कषायें उपशान्त हो जाती हैं, इसलिये इसमें औपशमिक भाव है। तथा सम्यग्दर्शन की अपेक्षा औपशमिक और क्षायिक दोनों भाव हैं।
अथ उपशांत कषाय तें पड़ने का विधान कहैं है -
टीका - उपशांत कषाय तें पडना दोय प्रकार है - भव क्षय हेतु, उपशमकाल क्षय निमित्तक तहां मरण होते पर्याय का नाश के निमित्त तैं पडना होइ, सो भव क्षय हेतु कहिए । अर उपशमकाल के क्षय के निमित्त तैं पडना होइ सो उपशम काल क्षय निमित्तक कहिए।
तहां भव-क्षय हेतु विर्षे कहिए है - उपशांत कषाय के काल विर्षे प्रथमादि अंत समयनि पर्यंत विर्षे जहां तहां आयु के नाश तें मरि करि देव पर्याय सम्बन्धी असंयत गुणस्थान विर्षे पडे, तहां असंयत का प्रथम समय विर्षे बंध, उदीरणा, संक्रमण आदि समस्त कारण उघाडै है । अपने-अपने स्वरूप करि प्रगट वर्ते हैं। जाते जे उपशांत कषाय विर्षे उपशमे थे, ते सर्व असंयत विर्षे उपशम रहित भए हैं।
- लब्धिसार ग्रंथ का विशेष अंश, पृष्ठ : २६७-२६८
क्षीणमोह गुणस्थान बारहवें गुणस्थान का नाम क्षीणमोह है। श्रेणी के चार गुणस्थानों में क्षीणमोह यह क्षपकश्रेणी का अंतिम गुणस्थान है। एक अपेक्षा से विचार किया जाय तो क्षपकश्रेणी के पूर्ण वीतरागता की प्राप्तिस्वरूप यहगुणस्थान है।
चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय का विशेष प्रारंभ तो क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय से ही हो गया था और वह क्षय का कार्य दसवें गुणस्थान के अंतिम समय में कहो अथवा बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में कहो दोनों का एक ही अर्थ है - परिपूर्ण हुआ है। इसी विषय को हम निम्नप्रकार भी समझ सकते हैं - सूक्ष्म लोभ कषाय का व्यय और पूर्ण वीतरागता का उत्पाद दोनों एक समयवर्ती हैं; क्योंकि उत्पाद और व्यय दोनों एक ही समय में होते हैं, यह वस्तु-व्यवस्था का स्वरूप है।
अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी की अपेक्षा विचार किया जाय तो चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान पर्यंत जहाँ क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति की है, उसी गुणस्थान से चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय का प्रारंभ हुआ है; लेकिन यहाँ चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों की मुख्यता से कथन किया है। __ चौदह गुणस्थानों में से अंत के चारों गुणस्थान पूर्ण वीतरागमय हैं; उनमें क्षीणमोह दूसरे क्रमांक का और पूर्ण सुखस्वरूप गुणस्थान है।
१०३. प्रश्न : मोह कर्म नष्ट हो गया है तो क्या हआ; अभी ज्ञानावरणादि तीनों घाति कर्मों का उदय सतत चल ही रहा है। अतः क्षीणमोही मुनिराज को पूर्ण सुखी कहना कैसे योग्य होगा?
उत्तर : ग्यारहवें गुणस्थान के प्रारंभ में हमने इस विषय का स्पष्टीकरण किया है। उसे यहाँ के लिए पुनः देखें।