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गुणस्थान विवेचन ज्ञानावरणादि तीन घाति कर्मों के उदय-निमित्तिक औदयिक अज्ञान का पर्याय में सद्भाव है, ज्ञान केवलज्ञानरूप से परिणमित नहीं हुआ है और उनके क्षयोपशम के अनुसार ज्ञान का आंशिक विकास हुआ है, यह बात तो सही है; तथापि ज्ञान की अल्पज्ञता दुःख में या सुख की पूर्णता में कुछ बाधक नहीं है। इसी विषय को और विशेष सुगमता से निम्नानुसार भी हम समझ सकते हैं।
१. पूर्ण सुख में जीव का मोहपरिणाम बाधक है, जिसमें मोहनीय कर्म का उदय तथा उदीरणा निमित्त है। बारहवें गुणस्थान में मोहकर्म तथा मोह परिणाम का सर्वथा अभाव होने के कारण यहाँ अनाकुल लक्षण क्षायिक अतीन्द्रिय सुख प्रगट हुआ है।
२. व्यवहारनय से अनंतसुख में बाधक अंतरंग कारण - ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतरायकर्म का उदय निमित्त है।
जैसे ज्ञान के सम्यक्पने में सम्यग्दर्शन निमित्त है, वैसे ही सुख की अनंतता में अनंतज्ञान भी निमित्त है; तथापि सुख की पूर्णता में ज्ञानावरणादि कर्मों का कुछ भी साक्षात् बाधकपना नहीं है।
१०४. प्रश्न : फिर अल्पज्ञ अवस्था में विकसित बारह अंग का श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान अधिक सुख का उत्पादक कारण है या नहीं?
उत्तर : अल्पज्ञ अवस्था में विकसित ज्ञान न सुख में कारण है न दुःख में; क्योंकि ज्ञान तो ज्ञानरूप है। ज्ञान से ज्ञान होता है, सुख-दुःख नहीं । ज्ञान और सुख गुण दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं; उनका परिणमन भी भिन्न-भिन्न ही है। एक गुण अन्य गुण से रहित है - ऐसा तत्त्वार्थसूत्र में भी आचार्य उमास्वामी ने कहा है - द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः । (अध्याय ५ सूत्र ४१) गुण द्रव्य के आश्रय से रहते हैं और एक गुण अन्य अनंत गुणों से रहित है। वस्तु का जैसा स्वरूप है, वैसा ही समझने से ज्ञान में निर्मलता तथा यथार्थता आती है।
१०५. प्रश्न : इसका अर्थ क्या सुखी होने के लिए ज्ञान का कुछ उपयोग ही नहीं है?
क्षीणमोह गुणस्थान
२२७ उत्तर : ज्ञान का उपयोग क्यों नहीं ? मुख्य रीति से ज्ञान का ही उपयोग सुखी होने के लिये है। अल्पज्ञ अवस्था में विकसित ज्ञान से सर्वज्ञ कथित यथार्थ वस्तु-व्यवस्था को जानकर जीव जितना-जितना मोह कम करता जाता है; उतना-उतना सुख उत्पन्न होता जाता है। मोह परिणाम ही दुःख है और निर्मोहपना ही सुख है।
इसी विषय का स्पष्टीकरण मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३१० पर निम्नानुसार सुबोध शब्दों में किया है ..... निर्णय करने का पुरुषार्थ करे, तो भ्रम का कारण जो मोहकर्म उसके भी उपशमादि हों तब स्वयमेव भ्रम दूर हो जाये; क्योंकि निर्णय करते हुए परिणामों की विशुद्धता होती है, उससे मोह के स्थिति-अनुभाग घटते हैं।
१०६. प्रश्न : इस विषय के लिए कुछ शास्त्राधार भी है ?
उत्तर : हाँ, शास्त्राधार है। जिनधर्म का कोई भी वक्ता हो वह शास्त्राधार से ही बात करता है और करना भी चाहिए। शास्त्र को प्रमाण माने बिना अपनी मति-कल्पना से समझने या समझानेवाला जिनधर्म का यथार्थ वक्ता नहीं हो सकता। शास्त्र कथित विषय को युक्ति से समझाना अलग है और मात्र कल्पना से तर्क तथा युक्ति ही देते रहना अलग बात है।
मोक्षमार्गप्रकाशक के तीसरे अध्याय में पृष्ठ ५० पर कहा है - यदि जानना न होना दुःख का कारण हो तो पुद्गल के भी दुःख ठहरे; परंतु दुःख का मूल कारण इच्छा है।
..............मोह का उदय है; वह दुःखरूप ही है। अधिक शास्त्राधार के लिए मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रंथ का पृष्ठ ६ और ७२ का भी अवलोकन करें। __ यदि अधिक ज्ञान ही सुख का उत्पादक हो तो अल्पज्ञानधारी भावलिंगी मुनिराज से बारह अंगों के धारक असंयमी देवों, तथा ग्यारह अंग एवं नौ पूर्व के द्रव्यलिंगी मुनिराज को भी अधिक सुखी मानने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। मतितावधि ऐसे तीन तथा मतिश्रतावधिमनःपर्यय ऐसे चार ज्ञान के धारी मुनिराजों को अति सुखी और शिवभूति