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गुणस्थान विवेचन किसी की कुछ नहीं चलती' इत्यादि व्यवहारनय के कथन को सत्यार्थ मानकर अज्ञानी जीव जिनवाणी का ही आधार लेकर मिथ्यात्व को ही पुष्ट करते हैं।
इसलिए उपशांत मोही मुनिराज का पतन क्यों होता है; इस विषय का हमें बहुत सावधानीपूर्वक निर्णय करना चाहिए।
ग्यारहवें गुणस्थान का स्वरूप यथार्थरूप से समझने हेत आचार्य श्री नेमिचंद्रकृत लब्धिसार गाथा ३१० की संस्कृत टीका का पंडितप्रवर टोडरमलजीकृत हिन्दी अनुवाद निम्नानुसार है
"बहुरि या प्रकार संक्लेश-विशुद्धता के निमित्त करि उपशांत कषायतें पड़ना-चढ़ना न हो, जातँ तहाँ परिणाम अवस्थित विशुद्धता लिए वर्ते हैं।"
स्पष्ट शब्दों में यहाँ आया है कि संक्लेश-विशुद्धता से गिरना-चढ़ना नहीं होता है। ___ आशय यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान का जितना यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल है, उतने काल में समय-समय प्रति पूर्ण वीतरागता है; वीतरागता में कुछ हीनाधिकपना नहीं है। ___ग्यारहवें गुणस्थान के पहले समय से लेकर अंतिम समय पर्यंत चारित्र मोहनीय कर्म का अंतरकरणरूप उपशम होने से वहाँ की विशुद्धता में अन्तर होने में कुछ निमित्त नहीं है, विशुद्धता अवस्थित है।
फिर भी जिज्ञासु के मन में शंका उत्पन्न हो ही जाती है कि उपशांत मोह गुणस्थान से पतित होने का कुछ ना कुछ कारण तो होना ही चाहिए। इसका समाधान लब्धिसार के ही शब्दों में -
"बहुरि तहाँ तैं जो पड़ना हो है, सो तिस गुणस्थान का काल पूरा भए पीछे नियम तैं उपशम काल का क्षय होई, तिसके निमित्त तैं हो है"
संक्षेप में इतना ही समझाया है कि चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम के काल का क्षय होने से ही उपशांत मोही मुनिराज नीचे दसवें सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में आते हैं।
इस ही विषय का और विशेष खुलासा आया है - "विशुद्ध परिणामनि
उपशान्तमोह गुणस्थान की हानि के निमित्त तैं तहाँ - (उपशांत मोह) तैं नाहीं पड़े वा अन्य कोई निमित्त तैं नाहीं पड़े है; ऐसा जानना।" इस वाक्य में संक्लेश-विशुद्ध परिणाम निमित्त नहीं और कर्म की भी निमित्तता का निषेध किया है; क्योंकि मुनिराज जबतक उपशांतमोह गणस्थान में हैं, तबतक तो किसी भी चारित्र मोहनीय कर्म के उदय का निमित्तपना बनता ही नहीं।
जब सूक्ष्म लोभकषाय के उदय का निमित्त बनता है, तब ग्यारहवाँ गुणस्थान ही नहीं रहता, दसवाँ सूक्ष्मसापराय गुणस्थान हो जाता है। अतः उपशांत मोही मुनिवर कर्म के कारण नीचे के गुणस्थान में आये, यह व्यवहार नहीं बन सकता। अतः काल-क्षय ही नीचे के गुणस्थान में आने का कारण बनता है।
१०१. प्रश्न : इस ग्यारहवें गुणस्थान में क्या मुनिराज का मरण नहीं हो सकता?
उत्तर : उपशांतमोह गुणस्थानवर्ती मुनिराज का अंतर्मुहुर्तकाल में से किसी भी समय में मरण हो सकता है। मरण तो होता है शुद्धोपयोगरूप (ध्यानरूप) अवस्था में और तदनंतर तत्काल ही विग्रहगति के प्रथम समय में चौथा गुणस्थान हो जाता है और वे मुनिराज देवगति में ही सौधर्मस्वर्ग से सर्वार्थसिद्धि पर्यंत कहीं भी जन्म लेते हैं।
१०२. प्रश्न : फिर उपशांत मोह से गिरने के कारण दो हो गये। मात्र एक कालक्षय ही नहीं रहा ?
उत्तर : आपका कहना सही है। यदि मरण की अपेक्षा लेते हैं तो उपशांत मोह से गिरने के दो कारण सिद्ध हो जाते हैं। १. काल-क्षय और २. भव-क्षय । तथापि सामान्य कारण तो एक मात्र काल-क्षय ही है; क्योंकि भव-क्षयरूप कारण तो कदाचित् किसी मुनिराज के होता है तथा उपशम श्रेणी के अन्य गुणस्थानों में भी हो सकता है। भव-क्षय और आयुक्षय - इन दोनों का एक ही अर्थ है।
धवला पुस्तक १का अंश (पृष्ठ १८९ से १९०) सामान्य से उपशान्तकषायवीतरागछदास्थ जीव हैं ।।१९।।
जिनकी कषाय उपशान्त हो गई है, उन्हें उपशान्तकषाय कहते हैं। जिनका राग नष्ट हो गया है उन्हें वीतराग कहते हैं। छद्म ज्ञानावरण और