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ध्यान का स्वरूप
परमहंसस्वरूप है। इस एकदेश व्यक्तिरूप शुद्धनय के व्याख्यान को परमात्म ध्यानभावना की नाममाला में यथासंभव सर्वत्र जोड़ना ।
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वही परब्रह्मस्वरूप है, वही परमविष्णुस्वरूप है; वही परमशिवस्वरूप है, वही परमबुद्धस्वरूप है, वही परमजिनस्वरूप है, वही परमस्वात्मोपलब्धिलक्षण सिद्धस्वरूप है, वही निरंजनस्वरूप है, वही निर्मलस्वरूप है, वही स्वसंवेदनज्ञान है, वही परमतत्त्वज्ञान है, वही शुद्धात्मदर्शन है, वही परमावस्थास्वरूप है, वही परमात्मा का दर्शन है, वही परमात्मा का ज्ञान है, वही परमावस्थास्वरूप परमात्मा का स्पर्शन है, वही ध्येयभूतशुद्धपारिणामिकभावरूप है, वही ध्यानभावनास्वरूप है, वही शुद्धचारित्र है, वही परमपवित्र है, वही अंतः तत्त्व है, वही परमतत्त्व है, वही शुद्धात्मद्रव्य है, वही परमज्योति है, वही शुद्ध आत्मा की अनुभूति है, वही आत्मा की प्रतीति है, वही आत्मा की संवित्ति है, वही स्वरूप की उपलब्धि है, वही नित्यपदार्थ की प्राप्ति है, वही परमसमाधि है, वही परमानन्द है, वही नित्यानन्द है, वही सहजानन्द है, वही सदानन्द है, वही शुद्धात्मपदार्थ के अध्ययन रूप है, वही परमस्वाध्याय है, वही निश्चय मोक्ष का उपाय है, वही एकाग्रचिन्तानिरोध है, वही परमबोध है, वही शुद्धोपयोग है, वही परमयोग है, वही भूतार्थ है, वही परमार्थ है, वही निश्चय पंचाचार है, वही समयसार है, वही अध्यात्मसार है, वही समता आदि निश्चयषड्ावश्यक स्वरूप है, वही अभेदरत्नत्रयस्वरूप है, वहीं वीतराग सामायिक हैं, वही परम शरण उत्तम मंगल है, वही केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण है, वही समस्त कर्मों के क्षय का कारण है, वही निश्चय चतुर्विध आराधना है, वही परमात्मा की भावना है, वही शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न सुख की अनुभूति परमकला है, वही दिव्यकला है, वही परम अद्वैत है, वही परम अमृतरूप परमधर्मध्यान है, वही शुक्लध्यान है, वही रागादिविकल्परहित ध्यान है, वही निष्कल ध्यान है, वही परमस्वास्थ्य है, वही परमवीतरागपना है, वही परमसाम्य है, वही परमएकत्व है, वही परमभेदज्ञान है, वही परमसमरसीभाव है; इत्यादि समस्त रागादि विकल्प-उपाधि से रहित
जिनागम के आलोक में
परम आह्लादरूप एक सुख जिसका लक्षण है, ऐसे ध्यानरूप निश्चयमोक्षमार्ग के वाचक अन्य भी पर्यायवाची नाम परमात्मतत्त्व के ज्ञानियों द्वारा जाननेयोग्य हैं। "
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जैनदर्शन में जिस ध्यान के गीत गाये हैं, वह तो यही निश्चयधर्मध्यान है, जिसे जिनागम में उक्त नामों से पुकारा जाता है।
उक्त स्वरूपाचरण या शुद्धोपयोगरूप ध्यान की चर्चा छहढाला नामक ग्रन्थ में पण्डित दौलतरामजी इसप्रकार करते हैं( हरिगीतिका )
जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया । वरणादि अरु रागादि तैं, निज भाव को न्यारा किया ।। निज माहिं निज के हेतु, निज कर आपको आपै गह्यौ । गुण-गुणी ज्ञाता ज्ञान-ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यौ ।। जहँ ध्यान- ध्याता - ध्येय को, न विकल्प वच-भेद न जहाँ । चिद्भाव कर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ ।। तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दसा । प्रगटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत, ये तीनधा एकै लसा ।। परमाण - नय - निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखै । दृग-ज्ञान-सुख बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विषै ।। मैं साध्य-साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनि तैं । चित्पिण्ड चण्ड अखण्ड सुगुणकरण्ड, च्युति पुनि कलनि तैं ।। यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यौ । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कहौ ।। तब ही शुक्ल ध्यानाग्नि करि, चउ घाति विधि कानन दह्यौ । सब लख्यौ केवलज्ञान करि, भविलोक कों शिवमग कहौ ।। उक्त चार छन्दों में स्वानुभूति, स्वरूपाचरण या शुद्धोपयोगरूप ध्यान की सम्पूर्ण प्रक्रिया को अति संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया गया है। १. बृहद्रव्यसंग्रह गाथा ५६ की ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका का भावानुवाद २. छहढाला, छठवीं ढाल, छन्द ८-११