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ध्यान का स्वरूप सबसे पहले तो जिन-अध्यात्म के अध्ययन से वर्णादि परपदार्थों और रागादि विकारीभावों से भिन्न निज भगवान आत्मा को भलीभांति जाने, पहिचाने; तदुपरान्त बुद्धिरूपी अत्यन्त तीक्ष्ण छैनी से, प्रज्ञाछैनी से वर्णादि और रागादि से भिन्न निजभावरूप भगवान आत्मा को भिन्न करे, भिन्न जाने, भिन्न अनुभव करे । तात्पर्य यह है कि इन वर्णादि और रागादि से भिन्न अपने आत्मा में अपनापन करे, अपने आत्मा को निजरूप अनुभव करे।
यह अनुभव करने का कार्य, स्वयं को ग्रहण करने का कार्य; अपने में ही होगा, अपने लिए ही होगा और अपने द्वारा ही होगा। जब ऐसा होगा, तब गुण-गुणी और ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय में कोई अन्तर ही नहीं रह जावेगा। ध्यान, ध्याता और ध्येय का विकल्प भी समाप्त हो जायेगा, वचनभेद भी न रहेगा; तब चैतन्यभाव ही कार्य होगा, चिदेश आत्मा ही कर्ता होगा और ज्ञान-दर्शन चेतना ही क्रिया होगी। कर्ता, कर्म, क्रिया का भेद भी नहीं रहेगा। तीनों अभिन्न हो जायेंगे, उसमें कोई खेद न रहेगा, खिन्नता न रहेगी - शुद्धोपयोगरूप निश्चल दशा प्रगट होगी और दर्शनज्ञान-चारित्र - ये तीन होकर भी एकरूप में ही शोभायमान होंगे।
जब समयसार में यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि प्रज्ञाछैनी से अपने आत्मा को विभक्त करने की आपकी आज्ञा तो हमें स्वीकार है; पर उक्त निज भगवान आत्मा को ग्रहण कैसे करें, ग्रहण करने का साधन क्या है, क्या उसके लिए कुछ करना नहीं पड़ेगा, अन्य कोई साधन नहीं जुटाना पड़ेगा ? तब उत्तर दिया गया कि -
कह सो घिप्पदि अप्पा पण्णाए सोदुधिप्पदे अप्पा। जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो।।'
(हरिगीत ) जिस भांति प्रज्ञा छैनी से पर से विभक्त किया इसे।
उस भांति प्रज्ञा छैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे ।। १. समयसार गाथा २९६
जिनागम के आलोक में
२७ अरे, भाई ! जिस प्रज्ञाछैनी से इस भगवान आत्मा को पर से भिन्न जाना है; उसी प्रज्ञाछैनी से ही अपने आत्मा का ग्रहण होगा, अनुभव होगा, ध्यान होगा; अन्य किसी साधन की कोई अपेक्षा नहीं है।
इसीप्रकार जिस विधि से पर से भिन्नता की गई है; उसी विधि से भगवान आत्मा का ग्रहण होगा, अन्य कोई विधि खोजने की आवश्यकता नहीं है, अन्य कोई प्रक्रिया अपनाने की आवश्यकता नहीं है।
अरे, भाई ! असली धर्म तो यही है, असली ध्यान तो यही है; असली धर्मध्यान तो यही है।
प्रश्न - आप कहते हैं कि ध्यान की कक्षायें चलाने की आवश्यकता नहीं है ? ध्यान के शिविर लगाने की भी आवश्यकता नहीं है। यदि ध्यान की कक्षायें नहीं चलायेंगे, ध्यान के शिविर नहीं लगायेंगे तो फिर लोग ध्यान करना सीखेंगे कैसे?
उत्तर - कक्षायें ज्ञान की लगती हैं, ध्यान की नहीं; शिविर भी ज्ञान के चलाये जाने चाहिए, ध्यान के नहीं। पठन-पाठन की व्यवस्था तो मुनिसंघों में भी होती रही है और श्रावकों के लिए तो होती ही है, होनी भी चाहिए; परन्तु ध्यान के संदर्भ में ऐसी कोई परम्परा नहीं है। __ भगवान महावीर से आजतक कभी कहीं कोई ध्यान करने की विधि सिखाने की बात पढने-सुनने में नहीं आई।
स्वयं में स्थिर हुए सम्यग्ज्ञान का नाम ध्यान है। आत्मा के ज्ञान होने के उपरान्त ध्यान के लिए अलग कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं रहती।
ध्यान तो एकदम व्यक्तिगत चीज है, उसके लिए तो एकदम शान्तएकान्त स्थान चाहिए और शिविरों के लिए तो भीड़भाड़ ही चाहिए।
ध्यान करने के लिए तो हमारे सभी तीर्थंकर, गणधरदेव और साधुगण निर्जन, निर्जन्तु एकान्त वनखण्ड खोजते रहे हैं; पर्वत की चोटियों को चुनते रहे हैं। यही कारण है कि हमारे लगभग सभी सिद्धक्षेत्र, साधनाक्षेत्र १. आचार्य अमितगति : योगसार प्राभृत, छन्द ४७०