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________________ जिनागम के आलोक में ध्यान का स्वरूप साधन, समय - सभी कुछ असली धर्म के, ध्यान के, धर्मध्यान के विरोध में लग रहे हैं। क्या यह एक विचारणीय स्थिति नहीं है ? बृहद्रव्यसंग्रह नामक ग्रंथ में ध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है - मा चिट्ठह मा जंपह मा चिन्तह किं विजेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं ।।' (हरिगीत) बोलो नहीं सोचो नहीं अर चेष्टा भी मत करो। उत्कृष्टतम यह ध्यान है निज आतमा में रत रहो।। हे भव्यजीवो ! कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो, कुछ भी चिन्तवन मत करो; जिससे आत्मा निजात्मा में तल्लीनरूप से स्थिर हो जावे; क्योंकि यही परमध्यान है। इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि ध्यान करने के लिए कुछ भी करना अभीष्ट नहीं है; न मन से, न वचन से और न काय से; परन्तु आज जो ध्यान सिखाया जाता है, उसमें करना-करना ही होता है। मन में ऐसा सोचो, वाणी से ऐसा उच्चारण करो और काया से भी कुछ न कुछ करने को ही कहा जाता है। यहाँ कोई कह सकता है कि मन-वचन-काय से कुछ नहीं करने के लिए भी तो मन-वचन-काय की क्रिया को रोकना होगा, रोकने का काम तो करना ही होगा। यह भी तो करना ही हुआ न ? हम भी तो यही कहते हैं कि शरीर स्थिर रखो, उसे हिलने-डुलने न दो, मौन से रहो और मन को स्थिर करो। इसमें क्या गलत हो गया ? अरे भाई ! यदि मन-वचन-काय की संभाल करते रहेंगे तो फिर आत्मा का ध्यान कैसे होगा ? ध्यान तो मन-वचन-काय को संभालने में ही लगा रहेगा। अभी तक शरीरादि हिलाने-डुलाने का काम करता था, अब शरीर हिले नहीं - यह करना होगा। अभी तक बोलने में उपयोग १. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ५६ रहता था, अब नहीं बोलने में रहेगा। अबतक कछ न कुछ सोचता रहता था, अब सोचना बन्द करने की सोचेगा। आत्मा को मन-वचन-काय की क्रिया से छुट्टी तो मिली ही नहीं; वह आत्मा को कब जानेगा, उसके ध्यान का ध्येय आत्मा कब बनेगा ? ___ हम तो यह कहते हैं कि मन-वचन-काय का कुछ भी मत करो, वाणी के संबंध में भी कुछ न करो, यहाँ तक कि काय व वचन के बारे में सोचो भी मत; ज्ञान को कहीं भी मत उलझाओ। यदि ऐसा हुआ तो ज्ञान आत्मा में सहज ही लग जावेगा; उसे जानेगा, जानता रहेगा, लगातार जानता रहेगा - इसी का नाम तो ध्यान है। इस गाथा की संस्कृत टीका में ब्रह्मदेव जो कुछ भी लिखते हैं; उसका भावानुवाद इसप्रकार है - "हे विवेकी पुरुषो ! तीन योगों के निरोध से यह आत्मा अपने में स्थिर होता है; इसलिए नित्य निरंजन और निष्क्रिय ऐसे निज शुद्धात्मा की अनुभूति को रोकनेवाले शुभाशुभ चेष्टारूप कायव्यापार, शुभाशुभ अंतर्बहिर्जल्परूप वचनव्यापार और शुभाशुभ विकल्पजालरूप चित्तव्यापार को किंचित् भी मत करो। ____ जो आत्मा सहजशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावी परमात्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक परमसमाधि से उत्पन्न, सर्व प्रदेशों में आनंद उत्पन्न करनेवाले सुख के आस्वादरूप परिणतिसहित निजात्मा में रत-परिणत-तल्लीन-तच्चित्त-तन्मय होता है; उस आत्मा का वह सुखस्वरूप में तन्मयपना ही निश्चय से परम अर्थात् उत्कृष्ट ध्यान है। उस परमध्यान में स्थित जीवों को जिस वीतराग परमानन्दरूप सुख का प्रतिभास होता है, वही निश्चयमोक्षमार्गस्वरूप है। वह अन्य किस-किस पर्यायवाची नामों से कहा जाता है, वही कहते हैं - वही शुद्धात्मस्वरूप है, वही परमात्मस्वरूप है, वही एकदेशप्रगटतारूप विवक्षितएकदेशशुद्धनिश्चयनय से स्वशुद्धात्मा के संवेदन से उत्पन्न सुखामृतरूपी जल के सरोवर में रागादिमल रहित होने के कारण
SR No.008348
Book TitleDhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size437 KB
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