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ध्यान का स्वरूप
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यदि निश्चय धर्मध्यान की बात करें तो निश्चय धर्मध्यान में जिस भगवान आत्मा का ध्यान किया जाता है; उस भगवान आत्मा के स्वरूप को जानना आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार में शरीरादि परपदार्थों से भिन्न, अपने में उत्पन्न होनेवाले रागादि विकारीभावों से अन्य, विकारी-अविकारी समस्त पर्यायों से पार और गुणभेद से भी भिन्न जिस आत्मा की चर्चा है; निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान का ध्येय तो वह भगवान आत्मा है। ध्यान करने की प्रेरणा देने के पहिले क्या उस भगवान आत्मा का स्वरूप समझना-समझाना आवश्यक नहीं है?
जिस ध्यान से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, जो साक्षात् धर्मस्वरूप है; उस ध्यान को समझने-समझाने के लिये ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान का फल जानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।
ध्याता तो चौथे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के जीव हैं। ध्येय उक्त ज्ञानानन्दस्वभावी त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा है। ध्यान उक्त त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में उपयोग का स्थिर होना है और ध्यान का फल अतीन्द्रियानन्द की प्राप्ति है, मोह-राग-द्वेष से मुक्त होना है।
आज होनेवाले ध्यान में ये सब बातें दूर-दूर तक भी दिखाई नहीं देती।
उक्त चार बातों में सबसे पहले सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात ध्याता और ध्येय को समझना है। यह ऊपर कहा ही जा चुका है कि ध्याता सम्यग्दृष्टि जीव ही होते हैं। वर्णादि और रागादि से भिन्न जिस निजरूप भगवान आत्मा में आत्मानुभूतिपूर्वक अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन है; वही निजरूप भगवान आत्मा ध्यान का ध्येय होता है। अत: यह सुनिश्चित ही है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और ध्यान करने के लिए उक्त श्रद्धेय व ध्येय आत्मा को जानना अत्यन्त आवश्यक है।
इसका भाव यह है कि उक्त भगवान आत्मा न केवल श्रद्धेय और ध्येय ही है; अपितु परमज्ञेय भी वही है; क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान
जिनागम के आलोक में चारित्ररूप मोक्षमार्ग की प्राप्ति उक्त भगवान आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान (चारित्र) से ही संभव है।
अत: कक्षायें या शिविर तो उस भगवान आत्मा को सही रूप में समझने-समझाने के लिए लगाना आवश्यक है; न कि ध्यान सिखाने के लिए, ध्यान का अभ्यास कराने के लिए। सम्यग्दर्शन के बिना ध्यान कैसे होगा और ध्येय का सम्यक् निर्णय हुए बिना ध्यान किसका होगा? ____ ध्यान करने का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि ध्यान तो हम निरन्तर करते ही हैं। पत्नी पति का और पति पत्नी का ध्यान रखते ही हैं। डॉक्टर मरीजों का, दुकानदार ग्राहकों का, यहाँ तक कि मजदूर अपने काम का ध्यान रखते ही हैं। यदि ड्राइवर गाड़ी चलाते समय ध्यान न रखे तो क्या होगा - इसकी कल्पना की जा सकती है। ____ अरे, भाई ! ध्यान के बिना तो एक कप चाय भी नहीं बन सकती। यदि ध्यान नहीं रखा जायेगा तो चूले पर चढा दूध उबल सकता है, तवे पर पड़ी रोटी जल सकती है। कहाँ तक कहें ध्यान के बिना तो इस जगत में कोई भी काम नहीं होता। यही कारण है सभी लोग अपने-अपने काम का ध्यान रखते ही हैं। अतः सभी को ध्यान रखने का, ध्यान करने का अभ्यास तो है ही। आवश्यकता ध्यान के अभ्यास करने की नहीं, ध्येय को बदलने की है, निज आत्मरूप ध्येय को समझने की है।
ध्येय का निर्णय होने पर, उसमें अपनापन आ जाने पर, उसकी तीव्रतम रुचि जाग्रत हो जाने पर, उसे पाने की तड़प उत्पन्न हो जाने पर; उसका ध्यान तो सहज ही होता है, उस पर से ध्यान हटता ही नहीं है। इसीलिए तो कहा गया है कि ध्यान यत्नसाध्य नहीं, सहजसाध्य है।
एक महाविद्यालय में छात्र और छात्राएँ साथ-साथ अध्ययन करते थे। एक छात्र और एक छात्रा में परस्पर स्नेह हो गया। समान लोगों का सतत् सम्मिलन एक-दूसरे को आकर्षित करता ही है। परिचय को प्रेम में बदलते देर नहीं लगती। हुआ भी ऐसा ही। उन दोनों ने जीवन में पति