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________________ ध्यान का स्वरूप छहढाला में साफ-साफ लिखा है - देह-जीव को एक गिने बहिरातम तत्त्वमुधा है। शरीर और आत्मा को एक मानना बहिरात्मपन (मिथ्यात्व) है। शरीर और आत्मा को एक माननेवाले तत्त्व के संदर्भ में मूर्ख हैं, मिथ्यादृष्टि हैं। जो ध्यान विदेही होने के लिए था, आज वह देह को ठीक कर रहा है, देह की संभाल कर रहा है; जिस ध्यान में देह-देवल में विराजमान, पर देह से भिन्न भगवान आत्मा का ध्यान करना अभीष्ट था, आज उसी ध्यान में देह का ध्यान रखने का पाठ पढाया जा रहा है। ३. धर्म सहित ध्यान को धर्मध्यान कहते हैं। धर्म माने वस्तु का स्वभाव और ध्यान माने एकाग्रता, वस्तुस्वभाव की ओर एकाग्रता ही धर्मध्यान है। यह धर्मध्यान भी चार प्रकार का है आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । १. आज्ञाविचय - आगम की आज्ञा के अनुसार श्रद्धापूर्वक गहन विचार करना आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है। बहुत से विषय ऐसे हैं; जिन्हें सीधे जानना संभव नहीं है। जैसे जमीकंद में अनंत जीव हैं - इस बात का निर्णय जिनागम के आधार से ही हो सकता है; क्योंकि वे जीव इतने सूक्ष्म है कि उन्हें इन्द्रियप्रत्यक्ष से जानना संभव नहीं है। २. अपायविचय - मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र संसार के कारण होने से मुक्तिमार्ग के अपाय (विरोधी) हैं, अज्ञानी जीव इस अपाय से कैसे बचें - इस बात का प्रबल चिन्तन अपायविचय नामक धर्मध्यान है। इस धर्मध्यान का दूसरा नाम उपायविचय भी है; क्योंकि इसमें मुक्ति प्राप्त करने के उपाय का भी गंभीर चिन्तन होता है, मुक्ति के उपायरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का विचार होता है। उक्त के संदर्भ में किया गया गहन तत्त्वविचार ही अपायविचय या उपायविचय नामक धर्मध्यान है। ३. विपाकविचय - कर्मों के विपाक के संदर्भ में विचार करना विपाकविचय नामक धर्मध्यान है। कौन से कर्म का विपाक या उदय कब जिनागम के आलोक में होता है, उसका क्या फल है आदि सम्पूर्ण कर्मविषयक गहरा चिन्तन इस विपाकविचय नामक धर्मध्यान में आता है। ४. संस्थानविचय - जिनागम में प्रतिपादित लोक का क्या आकार है ? ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक की रचना आदि जैनधर्म संबंधी भूगोल का विचार संस्थानविचय नामक धर्मध्यान है। जिनागम के आधार पर प्राप्त जानकारी के अनुसार उक्त सभीप्रकार के चिन्तन विकल्पात्मक होने से व्यवहार धर्मध्यान है। निश्चय धर्मध्यान तो देशनालब्धिपूर्वक जाने हुए निज भगवान आत्मा का अवलोकन करना, जानना और उसी में उपयोग को एकाग्र करना है। विशेष विचार करने की बात यह है कि शुक्लध्यान पंचमकाल में किसी को भी तथा गृहस्थों को चौथे काल में भी नहीं होता और आर्तध्यान वरौद्रध्यान करने योग्य नहीं हैं। अब बचा मात्र धर्मध्यान, जो इस पंचमकाल में ज्ञानी सम्यग्दृष्टि गृहस्थों के भी संभव है; मिथ्यादृष्टियों को धर्मध्यान नहीं होता। आज जब भी ध्यान की चर्चा चलती है, तब उक्त आज्ञाविचय आदि चार प्रकार के धर्मध्यानों की तो बात ही नहीं होती तथा यह धर्मध्यान सम्यग्दृष्टियों को ही होता है - इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया जाता। उक्त चारों प्रकार के धर्मध्यानों की विषयवस्तु की ओर ध्यान दें तो एक बात स्पष्ट होती है कि जिनागम के अध्ययन बिना धर्मध्यान संभव ही नहीं है। क्योंकि जिनाज्ञा जाने बिना आज्ञाविचय धर्मध्यान कैसे होगा? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप मुक्तिमार्ग को समझे बिना अपायविचय धर्मध्यान संभव नहीं है। इसीप्रकार जिसमें कर्मसिद्धान्त और त्रिलोक की रचना का निरूपण है, उस करणानयोग के ग्रन्थों के अभ्यास बिना विपाकविचय और संस्थानविचय धर्मध्यान कैसे होंगे? क्या ध्यान का अभ्यास करानेवाले जिनागम की उक्त विषयवस्तु से परिचित हैं? यदि हैं तो भी क्या वे ध्यानार्थियों को उक्त विषयों का अध्ययन कराते हैं ? नहीं तो फिर यह कैसा धर्मध्यान है ?
SR No.008348
Book TitleDhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size437 KB
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