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________________ १८ ध्यान का स्वरूप पत्नी के रूप में साथ-साथ रहने का संकल्प कर लिया, कसमें खा ली कि शादी करेंगे तो आपस में ही करेंगे; अन्यथा...। कसमें तो खा लीं, पर अपने इस संकल्प को अपने-अपने माँ-बाप को बताने का साहस न जुटा सके और दिन-रात यों ही बीतने लगे। यद्यपि इस बात की चर्चा उन्होंने किसी से भी नहीं की; तथापि 'चंचल नैन छुपें न छुपाये' की नीति के अनुसार बात छुपी न रह सकी; उनके माँ-बाप तक भी यह बात पहुँच ही गई। माँ-बाप समझदार थे। वे यह अच्छी तरह जानते थे कि यदि हमने कुछ किया तो होने जाने वाला तो कुछ है नहीं; हाँ, हम खलनायक अवश्य बन जायेंगे । न केवल इसलिए, अपितु जोड़ा भी तो श्रेष्ठ था; अत: उनके चित्त को भी यह बात सहज स्वीकृत हो गई। लड़के के पिता ने लड़के को बुलाकर कहा- “सुनो, जरा ध्यान से सुनो; हमने तुम्हारी शादी करने का निर्णय लिया है। हम चाहते हैं कि इसी वर्ष तुम्हारी शादी हो जावे।" पिता से शादी के प्रस्ताव की बात सुनकर भी पुत्र अपने हृदय की बात न कह सका और कहने लगा “अभी मैंने शादी के बारे में सोचा नहीं है। अभी तो पढाई पूरी करनी है, उसके बाद काम पर भी तो लगना है। उसके बाद..... ।” वह अपनी बात पूरी ही न कर पाया कि पिता ने कहा- "हमने अमुक व्यक्ति की अमुक लड़की से तुम्हारी शादी करने की बात सोची है।" जिसे वह जी-जान से चाहता था, पिता के मुख से उसी का नाम सुनकर वह हक्का-बक्का रह गया; उसके मुख से कुछ भी न निकला । पिता ने अपनी बात को आगे बढाते हुए कहा- “मैं चाहता था तुम भी उसे देख लो, मिल लो; मुझे विश्वास है, तुम्हें वह पसन्द आयेगी । " अभी-अभी उसने शादी करने से इन्कार किया था यह बात न जाने कहाँ चली गई और वह अत्यन्त विनम्रता से कहने लगा - जिनागम के आलोक में १९ "जब आपने देख लिया है तो मुझे क्या देखना ? आपकी अनुभवी दृष्टि के सामने मैं समझता भी क्या हूँ ? आप जो कुछ भी करेंगे, वह ठीक ही होगा ।" 97 वह अपनी बात पूरी भी न कर पाया था कि पिताजी कहने लगें - “ये तो ठीक है, पर एक निगाह तुम भी डाल लेते तो ठीक रहता ।...' “नहीं, नहीं; मुझे कुछ भी नहीं देखना है” जब पुत्र ने यह कहा तो पिताजी कहने लगे - "सुनो, अभी दो-चार दिन में ही सगाई पक्की कर देंगे।" "ठीक है।" “ठीक है नहीं; पूरी बात सुनो। सगाई तो अभी कर देंगे, पर शादी चार माह बाद मई-जून में ही हो पायेगी।" "ठीक है, जब आप ठीक समझें।" "पर, हमारी एक शर्त है कि जबतक शादी न हो, तबतक तुम दोनों एक-दूसरे के घर के चक्कर नहीं लगावोगे।” "ठीक है। " “और भी सुनो, चिट्ठी-पत्री भी नहीं चलेगी।" """" ठीक है, ठीक है; कोई बात नहीं ।" “एक बात और भी है कि तबतक तुम एक-दूसरे के बारे में सोचोगे भी नहीं; एक-दूसरे को ध्यान में भी नहीं लाओगे; क्योंकि यदि तुम्हारा चित्त एक-दूसरे में उलझ कर रह गया तो पढाई-लिखाई चौपट हो जायेगी।" व्यग्र होते हुये लड़का बोला- “जो भी हो, पर आपकी यह बात नहीं मानी जा सकती। " "क्यों ?" "क्योंकि यह बात हमारे हाथ में नहीं है। जिससे अपनापन हो जाता है, स्नेह हो जाता है, वात्सल्य हो जाता है, जिसके प्रति रुचि जाग्रत हो
SR No.008348
Book TitleDhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size437 KB
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