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________________ १९६ चलते फिरते सिद्धों से गुरु से बच जाते हैं, जबकि अकर्त्तावादी होकर भी एवं वस्तु स्वातंत्र्य में आस्थावान होकर भी जैन न जाने क्यों स्वयं के कर्तृत्व के भार से निर्भार नहीं हो पाते। सर्वज्ञता को स्वीकार करते हुए भी और उनके अनुसार पर्यायों की क्रमबद्धता को मानते हुए भी अपनी कर्तृत्व की भूल को स्वीकार नहीं कर पाते । अस्तुः।। जैनधर्म के श्रद्धावान यह तो भलीभाँति जानते ही हैं कि मुनिसंघ चातुर्मास स्थापना के लिए न तो किसी का आमंत्रण स्वीकार करते हैं और न किसी से आमंत्रण की अपेक्षा रखते हैं। वे तो अपने भ्रमण में चातुर्मास का काल निकट आने पर जो स्थान निर्विघ्न एवं धर्म साधना के अनुकूल शान्त और एकान्त होता है, वहाँ सहज ही चातुर्मास स्थापित कर लेते हैं। सेरोन (शान्तिनाथजी) के आसपास रहने वाले श्रावक-श्राविकाओं के भाग्य ने जोर मारा । उनके सौभाग्य से वही मुनिसंघ सेरोनजी में दर्शनार्थ पधारा । यहाँ सर्व प्रकार से आत्मसाधना की अनुकूलता देखकर चातुर्मास करने के लिए दृढ़ संकल्पित हो गया। चातुर्मास स्थापना के मंगल अवसर पर आचार्यश्री के अपने दायित्व के निर्वाह में संघ के समस्त साधुओं को शिथिलाचार के विरुद्ध आदेश देते हुए कहा - "हे मुनिसंघ के समस्त साधुबृन्द! वैसे तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि सभी साधुओं ने आत्मकल्याण के लिए ही मुनिव्रत के रूप में यह असिधारा व्रत धारण किया है। इसके द्वारा हम सभी कर्मों की जंजीर काटने के लिए ही कटिबद्ध हुए हैं। अतः कोई स्वप्न में ऐसी भूल नहीं करेगा, जिससे पूरे मुनिसंघ को नीचा देखना पड़े तथा वह किसी और संकट में पड़ जाय । फिर भी यदा-कदा कोई छोटी-मोटी भूल अनजाने में हो जावे तो आगम में प्रतिदिन प्रायश्चित लेने का जो विधान है, उस नियम का सब पालन करेंगे। दिगम्बर मुनि का यथार्थ स्वरूप बताते हुए आचार्यश्री ने अपने संघ रत्नत्रयधारी सच्चे गुरु का जीवन १९७ के सभी मुनिजनों से कहा - "देखो, वीतरागी दिगम्बर मुनि की अन्तर बाह्यदशा परम शान्त होती है। मुनियों के द्वारा २८ मूल गुणों का निर्दोष पालन करना और उत्तरगुणों में मुख्यतः २२ परीषहजय, १० धर्म, १२ तप तथा १२ भावनाओं के द्वारा वैराग्य में वृद्धि के साथ देह में निर्ममत्व भावों की पुष्टि करना आप सबकी दैनिक चर्या के अभिन्न अंग हैं। साथ ही मुनियों की विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों में सुमेरुवत अचल परिणति होती है। निंदा और प्रशंसा तथा शत्रु व मित्र के साथ समभाव एवं भूमिकानुसार होने वाले राग-द्वेष आदि भावों के प्रति उपेक्षावृत्ति होती है। ____ मुनियों की निर्ग्रन्थता, निस्पृहता और नग्नता आदि कठोर साधना देखकर श्रावकों में मुनियों के प्रति भक्ति उमड़ना स्वाभाविक है; परन्तु इससे मुनिदशा प्रभावित नहीं होती। कोई अश्रद्धालु/ईर्ष्यालु व्यक्ति निन्दा भी कर सकते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में साधु समभावी ही रहते हैं। __ अकम्पनाचार्य के संघस्थ मुनि श्रुतसागर की भाँति जोश में आकर कोई वैसी घटना को नहीं दुहरायेगा, जिसके कारण ७०० मुनियों का संघ संकट में पड़ गया था। ___ तत्त्वज्ञानी साधु विकथायें करने, मंत्र-तंत्र-यंत्र एवं ज्योतिष विद्या के द्वारा प्रतिष्ठा पाने या लौकिक प्रयोजन साधने आदि के चक्कर में नहीं पड़ते। हाँ, यदा-कदा किसी को तपश्चरण के फल में मुनि विष्णुकुमार की भाँति कोई मंत्र-तंत्र या विक्रिया ऋद्धि जैसी कोई विद्या सिद्ध हो भी जाये तो वे जीवन भर उसका उपयोग नहीं करते। ___ मुनि विष्णुकुमारजी को विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गई थी, परन्तु उन्हें स्वयं को उसका पता ही नहीं था। दूसरों ने आकर बताया कि 'आपको विक्रिया ऋद्धि प्राप्त है, आप अकम्पनाचार्य आदि ७०० मुनियों के संकट को दूर करने में समर्थ हो', तब कहीं उन्होंने मुनि संघ की रक्षा में उस विक्रिया का उपयोग किया था। उसके फल में भी उन्हें पुरस्कार नहीं, 99
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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