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________________ १९८ चलते फिरते सिद्धों से गुरु दण्ड ही मिला था। पूरी दीक्षा छेदकर नई दीक्षा लेनी पड़ी थी। अतः मुनि लौकिक प्रयोजन के हेतु तो कभी भी इन प्रपंचों में नहीं पड़ते।। -- रत्नत्रयधारी सच्चे गुरु का जीवन १९९ आ धमके।" पण्डितजी ने मुस्कुरा कर कहा - "आपका आध्यात्मिक प्रेम मुझे सहज ही खींच लाया । यद्यपि मेरा स्वास्थ्य इस लायक नहीं है, फिर भी न जाने कौनसी शक्ति मुझे यहाँ ले आई। आचार्य श्री गुण-ग्राही थे, अतः विद्वानों को यथायोग्य आदर देते थे। वे पण्डितजी के गहन चिन्तन, तत्त्वज्ञान की गहरी पकड़, सरल-सुबोधशैली में लेखन आदि से तथा समाज में पण्डितजी को प्राप्त प्रतिष्ठा से परिचित और प्रभावित थे। अतः आचार्यश्री ने पण्डितजी को अग्रिम पंक्ति में बैठनेको कहा। यद्यपि वरिष्ठ मुनिजन अपने कर्तव्यों के प्रति स्वयं ही सदैव सजग रहते हैं, परन्तु संघ में नव दीक्षित साधु भी तो होते हैं और पूर्व दीक्षितों में भी यदा-कदा शिथिलता हो सकती है। अतः आचार्य अपने दायित्व के निर्वाह हेतु और सम्पूर्ण संघ को सचेत करने के लिए समय-समय पर सामूहिक रूप से संघ को ऐसा उपदेश और आदेश देकर सावधान करते ही रहते हैं। यह बात श्रावक अच्छी तरह जानते हैं। अतः किसी के मन में ऐसा प्रश्न ही नहीं उठा कि संघ के साधुओं को ऐसा आदेश व उपदेश क्यों दिया गया? सभी साधुओं ने अपने मन में आचार्यश्री के उपदेश एवं आदेश के अनुसार ही अपनी निर्दोष चर्या पालन करने का संकल्प किया। आचार्यश्री द्वारा दिए गए मुनियों के कर्त्तव्यों एवं आध्यात्मिक उपदेश को उपस्थित श्रावकों एवं विद्वतवर्ग ने भी सुना । श्रावकगण तो साधुओं के कर्तव्यों को सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुए ही, विद्वानजन भी मुनिसंघ के कठोर अनुशासन-प्रशासन तथा निर्दोष चर्या देखकर गद्गद हो गये; क्योंकि ऐसे रत्नत्रय का निर्दोष पालन करनेवाले मुनिसंघ को श्रोताओं ने पहली बार ही देखा था। ____ मुनिसंघ की चारों ओर से प्रशंसा सुनकर उस सभा में एक अध्यात्म रसिक वयोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध विद्वान पण्डित श्री विद्याभूषणजी शास्त्री भी पधारे थे। पण्डितजी भी इस संघ के आचार्यश्री की आध्यात्मिक रुचि और उनके निर्विवाद व्यक्तित्व से पहले से ही सुपरिचित थे। अतः उनका यहाँ आना आकस्मिक नहीं था। आचार्यश्री ने शास्त्रीजी के यहाँ आने के पहले शास्त्रीजी को याद भी किया था। अतः आचार्यश्री मुस्करा कर बोले - “पण्डितजी आपकी उम्र लम्बी है, मैंने याद किया और आप खादी की धवल धोती, कुर्ता और टोपी पहने दुबले-पतले विद्वान पण्डित विद्याभूषण शास्त्री का अन्तर्बाह्य व्यक्तित्व आकर्षक था । आचार्यश्री ने उस सरस्वती के पुत्र, आध्यात्मिक प्रवक्ता, सरल स्वभावी पण्डित विद्याभूषणजी शास्त्री से भी चातुर्मास स्थापना समारोह की सभा को संबोधित करने के लिए कहा। आचार्यश्री का आदेश पाकर पण्डितजी ने स्वयं को धन्य माना और आदेश पालन हेतु सभा को सम्मानपूर्वक सम्बोधित करते हुए कहा - "धन्य है ऐसी मुनिदशा! जिन्हें मुक्त होना है, उन्हें ऐसा मुनिव्रत अंगीकार करना ही होगा, क्योंकि मुनि हुए बिना मुक्ति नहीं होती। मैं स्वयं निरन्तर ऐसी भावना भाता हूँ कि - "कब धन्य सुअवसर पाऊँ जब निज में ही रम जाऊँ।" तथा - "धरकर दिगम्बर भेष कब अठबीस गुण पालन करूँ।" मैं आचार्यश्री के आदेश का पालन कर आगम की साक्षीपूर्वक मुनि के स्वरूप का उद्घाटन करते हुए मुनिधर्म की महिमा में जो कुछ कह सकूँ, उसे ध्यान से सुनें और हृदयंगम करें तथा अपने जीवन में ऐसा मुनिव्रत धारण करने की भावना भायें। 100
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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