________________
२०१
२००
चलते फिरते सिद्धों से गुरु "धर्मी श्रावक मुनिराज की अद्भुत दशा को पहचानते हैं; क्योंकि उन्होंने स्वयं भी मुनियों जैसी वीतरागी शान्ति का आंशिक स्वाद चखा है। मुनियों की शान्ति की तो बात ही क्या कहें? उन्हें तो मात्र संज्वलन कषाय शेष रह गई है। अब तो वे केवलज्ञान के बिल्कुल समीप ही पहुँच गये हैं, संसार के कोलाहल से दूर चैतन्य की शान्ति में ठहरकर बर्फ जैसे शीतल हो गये हैं।
आत्मा के आनन्द में झूलते हुए सन्तों ने स्वानुभव में गोते लगाते लगाते यह बात लिखी है। इस पंचम काल में कुन्दकुन्द जैसे मुनि हुए। पंच परमेष्ठी में जिनका स्थान है, वे कुन्दकुन्द आदि मुनिराज जब इस भरतक्षेत्र में विचरते होंगे, उस समय तो ऐसे लगते होंगे, मानो चलतेफिरते सिद्ध ही हैं।
भगवतीआराधना के कवच अधिकार में मुनिराज के समाधिमरण की दशा का अद्भुत वर्णन है। किसी सन्त को कदाचित् सहज प्रमाद से आहार की अथवा जल की वृत्ति उत्पन्न हो तो अन्य सन्त कहते हैं कि 'अनन्त बार भोजन-पानी ग्रहण किया है, अब तो उसकी वृत्ति का परित्याग करके अन्तर के आनन्द के अनुभव में उतरो! चैतन्य की आराधना करो, अन्दर में डुबकी लगाकर चैतन्य को आराधो, ऐसा समाधिमरण करो कि जिससे फिर से अवतार न हो।' तब समाधिस्थ मुनिराज भी आहार आदि की वृत्ति का विकल्प त्यागकर स्वरूप में लीन हो जाते हैं। मुनि की ऐसी आराधना अन्तर स्वभाव के आश्रित होती है। ___ मुनिराज को प्रत्याख्यानावरणीय कषाय का भी अभाव हो चुका है, इस कारण वे सहजरूप से दिगम्बर होते हैं; वे अन्तरधाम की तैयारी करते हैं। उनको देह, मोर-पिच्छी और कमण्डलु मात्र परिग्रह होता है।
ऊपर आकाश और नीचे धरती उनके उड़ौना-बिछौना होते हैं। उनके रोम-रोम से वैराग्य रस झरता है। उन्हें स्वरूप में विशेष लीनता
रत्नत्रयधारी सच्चे गुरु का जीवन वर्तती है। उनके विषय-कषाय की आसक्ति छूट गयी है। दुःश्रुति का श्रवण छूट गया है; दिव्यध्वनि के अनुसार रचित शास्त्रों के श्रवण का विकल्प उत्पन्न होता है। अशुभ से तो संपूर्ण निवृत्ति हो ही गयी है। ___कुदेव और उनके माननेवालों से सम्पर्क छोड़ दिया है तथा सर्वज्ञ के कहे हुए मार्ग में ही मुनियों का उपयोग वर्तता है। वीतरागी सन्त-मुनिवरों को वीतरागता बढ़ गयी है, इसलिए अशुभपरिणाम छूट गये हैं। वीतरागी मार्ग में कहे गये पंच महाव्रतादि के शुभ विकल्प होते हैं।
समस्त जैन समाज के व्यक्ति प्रतिदिन प्रातःकाल उठते ही ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' कहकर सर्व नग्न दिगम्बर रत्नत्रयधारी मुनिवरों को नमस्कार करते हैं।
“जिन्हें अन्दर में आत्मा का भान हो और जो चारित्रदशा में आत्मा के परमआनन्द के चूंट पीते हों तथा अत्यन्त दिगम्बर दशा हो, ऐसे मुनि तो परम पूज्य हैं। उन्हें कौन ज्ञानी गुरु नहीं मानेगा? सच्चे-देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा बिना तो व्यवहार सम्यग्दर्शन ही नहीं होता । अतः इसमें गड़बड़ नहीं चल सकती। जिसे भवदुःख से छूटना हो और आत्मा का मोक्षसुख अनुभवना हो, उसको सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की यथार्थ श्रद्धा अनिवार्य है।
वीतरागी साधु तो अन्तरस्वभाव के अनुभव द्वारा ज्ञान के प्रकाशक हैं। उन्हें सम्यग्ज्ञान का प्रकाश झलक रहा है, वे सहज सुख के सागर हैं
और वीतरागरस से भरपूर हैं। मुनि तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुणोंरूपी रत्नों से भरपूर रत्नाकर हैं। सुगुणों के समुद्र हैं। धर्मीजीव उन्हें पहचानकर नमस्कार करते ही हैं। ___ "मुनिराज, वीतराग धर्म के भूषणस्वरूप हैं, पाप का खण्डन करनेवाले हैं। यथार्थ धर्म का उपदेश देते हैं, इसलिए धर्म को शोभित करनेवाले हैं और मिथ्यात्व का नाश करनेवाले हैं। परमशान्तभाव द्वारा ही कर्मों का नाश करते हैं। ऐसे मुनिवर जो पृथ्वीलोक में विराजमान हैं, उन्हें पहचानकर पण्डित बनारसीदासजी ने भक्तिपूर्वक नमस्कार किया है,
101