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चलते फिरते सिद्धों से गुरु वे कहते हैं - "अहो! जगत् के शिरोमणि मुनि-भगवन्तों से तो जगत् सुशोभित है, वे वन्दनीय हैं। मुनिराज तो सर्वज्ञ के बड़े पुत्रवत् उनके उत्तराधिकारी हैं।" ___ अपने अनुभव की साक्षीसहित मुनिराज कहते हैं कि “मैं ऐसे आनन्द का अनुभव करता हूँ और तुमको भी ऐसे आनन्द का अनुभव करने के लिए आमंत्रित करता हूँ। इसलिए तुम उस अनुभव को प्रगट करके अपनी
चैतन्य सम्पदा को प्राप्त करो। ___ अरे भाई! सुख की सम्पदा चेतन में होगी या जड़ में? चेतन आत्मा स्वयं ही सुख-सम्पदा से परिपूर्ण है, चैतन्य-सम्पदा में कोई विपदा नहीं है। मान-अपमान के विकल्प अथवा निन्दा-प्रशंसा के शब्द उसमें प्रवेश नहीं कर सकते । चैतन्यतत्त्व ऐसा नहीं है कि जो मान मिलने से फूल जाए
और अपमान होने पर कुम्हला जाए। तेरा चैतन्यतत्त्व तो सदा आनन्दमय है, जो मुनिराज ऐसे आनन्दमय अनुभव करने को कहते । धन्य हैं वे मुनिराज! उनको हमारा सौ-सौ बार नमन है।"
वीतरागी सन्तों के नाद से आत्मा डोल उठता है और स्वभाव के पन्थ में चढ़ जाता है। जिसे आत्मा को साधने की छटपटाहट है, सन्त उस आत्मा का उल्लास उत्पन्न करते हैं। "अरे जीव तु जाग रे जाग! तेरे चैतन्य में अपूर्व सामर्थ्य है, उसे तू सम्हाल!" सन्तों का ऐसा नाद सुनते ही श्रावकों का आत्मा उल्लास से जाग जाता है और उपयोग को अन्तरोन्मुख करके वह आत्मा का अनुभव कर लेता है। ___मुनिवर तो आत्मा के परम आनन्द में झूलते-झूलते मोक्ष को साध रहे हैं। आत्मा के अनुभवपूर्वक दिगम्बर चारित्रदशा द्वारा ही मोक्ष सधता है, दिगम्बर साधु साक्षात् मोक्ष का मार्ग हैं । अन्तर के चिदानन्द स्वरूप में झूलते-झूलते बारम्बार शुद्धोपयोग द्वारा निर्विकल्प आनन्द का अनुभव करते हैं। पंच परमेष्ठियों में जिनका स्थान है, ऐसे मुनियों की महिमा की क्या बात कहें। ऐसे मुनि का दर्शन प्राप्त होना भी महान आनन्द की बात
रत्नत्रयधारी सच्चे गुरु का जीवन
२०३ है। ऐसे मुनिवरों के तो हम दासानुदास हैं। हम उनके चरणों में नमते हैं। धन्य है वह मुनिधर्म! __ मुनियों के आत्मा की अन्तर्दशा अलौकिक होती है, वह भी पहचानी जा सकती है और ऐसी पहचान करके आचार्य अमृतचन्द्र उसका वर्णन करते हैं - देखो तो सही! उन्हें कितना बहुमान है? जो स्वयं भी मुनि हैं, वे अन्य मुनिराज को पहचान कर कहते हैं कि अहो! “कुन्दकुन्दस्वामी तो संसार के किनारे पहुँच गये हैं और मोक्ष में पहुँचने की तैयारी में हैं, उन्हें सातिशय विवेक ज्योति प्रगट हुई है, अनेकान्तरूप वीतरागी विद्या में वे पारंगत हैं, समस्त पक्ष का परिग्रह छोड़कर मध्यस्थ हैं, स्वयं ने पंच परमेष्ठी के पद में बैठकर मोक्षलक्ष्मी को ही उपादेय किया है। बीच में शुभराग आ पड़े, उसे कषायकण समझकर हेय किया है। इस प्रकार वे मोक्षमार्गरूप परिणत हुए हैं।”
जगत् में सहज चैतन्यतत्त्व को भानेवाले, अनुभव करनेवाले सन्तधर्मात्मा श्रेष्ठ हैं। उन्हें जगत् की स्पृहा नहीं है, इन्द्र और चक्रवर्ती की विभूति भी जिन्हें नगण्य है। सहज चैतन्यतत्त्व से उत्कृष्ट वैभव जगत् में दूसरा नहीं है - ऐसे चैतन्य तत्त्व की भावनावाले सन्तों को हम प्रणाम करते हैं। __ जैसे पिता परदेश जाकर आवें, तब बालकों के लिए उपहार लाते हैं; उसीप्रकार अपने धर्मपिता कुन्दकुन्दाचार्य विदेहक्षेत्र जाकर भरतक्षेत्र के बालकों के लिए शुद्धात्मा के आनन्द का उपहार लाये हैं। वह इस समयसार द्वारा हमें शुद्धात्मा रूप समयसार देते हैं और कहते हैं - "तू उसे स्वानुभवगम्य कर!" वीतरागी गुरु तो वीतरागमार्ग का ही उपदेश देते हैं।
देखो! मुनिराज तो सीधे सिद्धों से बातें करते हैं। कहते हैं - "प्रभु! तेरे जैसा मेरा स्वभाव मैंने अपने में अनुभव किया; इसलिए मैं तेरे समीप ही हूँ, तुझसे जरा भी दूर नहीं हूँ।"
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