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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
चारित्रवन्त मुनियों के चित्त में निज परम आत्मतत्त्व ही बसता है, परमतत्त्व के अतिरिक्त कोई रागादि परभाव उनके चित्त में नहीं बसते । जिनकी ज्ञानपर्याय में परमात्मा बसते हैं, ऐसे मुनि को मोक्षसुख का कारणरूप चारित्र होता है। उन्हें मैं बारम्बार नमता हूँ।
मुनिराज को ज्यों-ज्यों आत्मध्यान की शक्ति बढ़ती जाती है, त्योंत्यों व्यवहार छूटता जाता है। मुनिराज को इतनी शुद्धि तो प्रगट ही है कि अन्तर्मुहूर्त से अधिक उपयोग बाहर रहता ही नहीं । विकल्प आते हैं; परन्तु उनमें तन्मयता नहीं होती । पुरुषार्थ की कमजोरी से व्यवहार में आना पड़ता है, लेकिन भावना तो बारम्बार शुद्धस्वरूप में स्थिर होने की ही रहती है। विकल्प के प्रति खेद वर्तता है।
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प्रतिकूल संयोगों में मुनि को देखकर जो जीव मुनि को दुःखी हैं, उन्हें चारित्रदशा में होनेवाले सुख की खबर नहीं है। मुनि के शरीर को सिंह फाड़कर खा रहा हो, उसे देखकर अज्ञानी उन्हें दुःखी मानते हैं, जबकि मुनि तो परम शान्ति में हैं। वे आत्मा के आनन्द में झूलते हैं, उन्हें दर्द तो होता होगा, पर उपयोग बाहर आने पर भी उन्हें दुःख नहीं है, क्योंकि मुनिराज संयोग से दुःख नहीं मानते ।
ज्ञानी श्रावक को भी राग आता है और वह मुनि का उपसर्ग दूर करने का प्रयत्न करता है। मुनि को बचाने के प्रयोजन में सिंह को तलवार लग जाए, तब भी वहाँ सिंह को मारने का अभिप्राय नहीं होने से तथा मुनि को बचाने के प्रसंग में ऐसा भी हो सकता है कि बचानेवाला और मारनेवाला दोनों ही मर जावें; परन्तु बचाने के भाव वाला स्वर्ग में जाता है और मारने के भाव वाला नरक में जाता है।
देव गुरु के स्वरूप के सम्बन्ध में सत्य-असत्य का विवेक करने में भय रखे तो सत्य समझ में नहीं आ सकता। श्री कुन्दकुन्द आचार्य पंच महाव्रतधारी भावलिंगी सन्त थे। उनके द्वारा कहे हुए वचन सर्वज्ञ - वीतराग के समान ही प्रमाणभूत है ।
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रत्नत्रयधारी सच्चे गुरु का जीवन
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हमारे परम सौभाग्य से ही हमें ऐसे परम वीतरागी संतों का समागम प्राप्त हुआ है। अतः हम सभी को अधिक से अधिक संख्या में पधारकर मुनि संघ के सान्निध्य का लाभ लेना चाहिये । इतना कहकर मैं विराम लेता हूँ।”
इस प्रकार मुनिधर्म एवं मुनिराजों की महिमा से अभिभूत पण्डितजी का भावभीना उद्बोधन सुनकर मुनिसंघ को ऐसा लगा कि - "क्या यह वही विद्याभूषण शास्त्री हैं, जिसके बारे में अबतक यह सुनते रहे कि पता नहीं क्यों? विद्याभूषण शास्त्री मुनियों का एवं पूजा-पाठ और भक्ति आदि का कट्टर आलोचक हो गया है, बात-बात में बाल की खाल खींचता है; परन्तु इसमें ऐसा तो कुछ भी नहीं है। जैसी भक्तिभाव से पूजा-भक्ति करते इसे देखा, ऐसी भक्ति भावना तो बहुत कम लोगों में देखने में आती है।
मुनिधर्म की महिमा तो इसके मुख से अपने कानों से अभी-अभी सुनी ही है। इस पण्डित की धार्मिक चर्या व चर्चा तथा बाह्याचार भी किसी भी श्रेष्ठ श्रावक से कम नहीं है- साधु-संतों के बहुमान में भी कोई कमी दिखाई नहीं देती।"
चातुर्मास स्थापना समारोह में मुनिसंघ के सिवाय और भी अनेक ऐसे नवीन श्रोता थे, जो मात्र यह जानने के लिए ही आये थे कि 'आजकल विद्याभूषण शास्त्री का मुनियों के प्रति क्या रुख है ? कैसा व्यवहार होता है और वे मुनियों के विषय में क्या बोलते हैं; क्योंकि सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज में यह अफवाह थी कि - “मात्र आत्माआत्मा के गीत गाने वाला यह समयसारी पण्डित पूजा-भक्ति, संयमसाधना, तप-त्याग तथा मुनियों का विरोधी हो गया है।" परन्तु पण्डितजी का उद्बोधन सुनकर और साधर्मियों के प्रति धर्म वात्सल्य देखकर उनका सब भ्रम भंग हो गया और वे पण्डितजी के पक्षधर बन गये ।
समारोह सभा के अन्तिम क्षणों में आचार्यश्री ने पण्डितजी को धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देते हुए पुनः कहा- “यथा नाम तथा गुण सम्पन्न
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