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रत्नत्रयधारी सच्चे गुरु का जीवन
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चलते फिरते सिद्धों से गुरु पण्डितजी" के बारे में मुझे परोक्ष रूप से कुछ ऐसे समाचार मिले थे कि "पण्डितजी एकांती हो गये हैं, परन्तु आज जब पण्डितजी से साक्षात्कार हुआ तो मेरा सारा भ्रम भंग हो गया। मैंने जब इन्हें प्रत्यक्ष देखा/सुना तो पाया कि पण्डितजी तो अध्यात्मज्ञान के ऐसे रत्नाकर है, जिसमें तत्त्वज्ञान के रत्नों का भंडार तो भरा ही है, साथ ही अन्य अनुयोगों का ज्ञान भी अच्छा है। आचार्य कुन्दकुन्द के पंचपरमागम तो आपके रोम-रोम में ही समा गये हैं, जहाँ तक संयम का सवाल है सो वह भी भूमिकानुसार बहुत अच्छा है। मैंने इनके उद्बोधन को ध्यान से सुना, इनके कथन से सिद्ध होता है कि उनपर मुनि विरोधी होने का आरोप भी निराधार है।
कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य समन्तभद्र स्वामी के रत्नकरण्ड श्रावकाचार के अनुसार व्यवहार सम्यग्दर्शन में भी सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा का होना अनिवार्य है और सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के निर्णय का आधार जिनवाणी है। अतः जिनागम की कसौटी पर जो देव-शास्त्र-गुरु खरे उतरेंगे, उन्हें ही तो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का भक्त माना जायेगा। ___ जब उन्हीं समन्तभद्र स्वामी ने देवागम स्तोत्र में सच्चे देव को आगम की कसौटी पर कस डाला तब किसी भक्त को एतराज क्यों नहीं हुआ?
सम्यग्दर्शन का अभिलाषी यदि गुरु को आगम की कसौटी पर कसकर गुरु मानता है तो वह क्या अपराध करता है?
पण्डितजी को ही क्या आप सबको भी परीक्षाप्रधानी तो होना ही चाहिए, अन्यथा आपका भी यह दुर्लभ मानव जीवन अंध श्रद्धा में यों ही बीत जायेगा।
आचार्यश्री ने पण्डितजी को बधाई देते हुए आगे कहा - "मैं पण्डितजी के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ और उन्हें उनके भय, आशा, स्नेह से दूर रहकर वस्तु स्वरूप के निर्णय करने का साहस जुटाने हेतु बधाई देता हूँ। मैं आप सब से भी ऐसी अपेक्षा रखता हूँ कि आप सब भी पण्डितजी की भाँति ही निर्भय होकर सत्य को समझें और इनसे
तत्त्वज्ञान का पूरा लाभ लें।" ___आचार्यश्री का अन्तिम उद्बोधन समाप्त ही हुआ था कि एक श्रोता हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसने कहा - "आचार्यश्री! आपने जो कहा - हम उसकी अनुमोदना करते हैं; परन्तु हमारा एक प्रश्न यह है कि "ये पण्डितजी पुण्य कार्य करते हैं, फिर भी पुण्य को हेय क्यों कहते हैं? क्या यह दुहरा व्यक्तित्व नहीं है?"
आचार्यश्री ने दृढ़ता से कहा - "नहीं भाई, ऐसा नहीं है। यदि तुम मेरे सामने भी शास्त्र प्रवचन में समयसार रखोगे तो मुझे भी पुण्य-पाप को हेय ही बताना होगा; क्योंकि पुण्य-पाप-आस्रवतत्त्व हैं और आस्रव संसार का कारण है, 'दुःखद' है। इसकारण उसे आगम में भी हेय ही कहा है। हाँ, जब तक आत्मा में स्थिरता नहीं आ पाती, पूर्ण वीतरागता प्रगट नहीं हो जाती, तबतक पापभाव से बचने के लिए साधक को पुण्य कार्य या शुभभाव हुए बिना नहीं रहते । एतदर्थ ज्ञानी को भी भूमिकानुसार पुण्य कार्य करना अनिवार्य हो जाता है। इसकारण पुण्य हेय होते हुए भी पुण्य कार्य किये ही जाते हैं।"
हमारे पूर्वज आचार्य भी हमें मुख्यतः तो आत्महित की ही प्रेरणा देते हैं, साथ ही यह भी कहते हैं कि यदि संभव हो तो परहित भी करना चाहिए; परन्तु परहित की तुलना में आत्महित ही सर्वश्रेष्ठ है। उक्तं च -
"आद हिदं कादव्वं, जइ सक्कं परहिदं च कादव्वं ।
आद हिद परहिदादो, आदहिदं सुट्ठ कादव्वं ।। अर्थात् आत्महित व परहित में आत्महित ही सर्वश्रेष्ठ है।"
ॐ नमः। इस प्रकार की प्रेरणा के साथ अन्त में हर्षपूर्वक जिनवाणी की स्तुति एवं मुनिसंघ की जयध्वनि के साथ चातुर्मास स्थापना समारोह सभा विसर्जित हुई और सब अपने-अपने घर प्रस्थान कर गये।
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