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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
है। इसलिए दो प्रकार के परिग्रह को छोड़कर भाव से सुसंयत हों । ५१' नट श्रमण एवं सदोष श्रमण -
'जो धर्म में निरुद्यमी है, दोष का घर हैं, गुण के आचरण से रहित है; वह नग्नरूप नग्न भेषधारी नट-श्रमण हैं । ५२१
अन्तरंग में मिथ्यात्व - रागादि से जिसके परिणाम कलुषित हैं और बाह्य में नग्न दिगम्बर वेष धारण करके जो उस पद के अनुरूप आचरण नहीं करता और अपनी स्वच्छन्द वृत्तियों से जिनशासन को कलंकित करता है, वह सदोष श्रमण है ।
श्रमण के पाँच भेद - १. पार्श्वस्थ, २. कुशील, ३. संसक्त, ४. अवसन्न और ५. मृगचरित्र / स्वच्छन्द । पाँचों प्रकार के सदोष मुनि स्वच्छन्दचारी जैनधर्म में दोष लगानेवाले होते हैं। आचार्य के उपदेश को छोड़कर एकाकी रहते हैं, धैर्य से रहित होते हैं, सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र, तप विनय और श्रुत ज्ञान से सर्वथा दूर रहते हैं। सच्चे मुनि और सज्जनों के दोष देखने में ही निपुण होते हैं, इसलिए वे अवन्दनीय हैं।
'बुद्धिमान पुरुषों को किसी शास्त्र आदि के लोभ से, किसी भय से इन पार्श्वस्थ आदि मुनियों की वन्दना कभी नहीं करना चाहिए, न विनय करना चाहिए। जो इनकी विनय करता है, उसको कभी रत्नत्रय नहीं हो सकता । ५४' 'जो जानते हुए भी लज्जा, गारव और भय से उनके पैरों पड़ते हैं, उनके भी बोधि अर्थात् रत्नत्रय नहीं है। कैसे हैं वे जीव? पाप की अनुमोदना करते हैं । पापियों का सन्मानादि करने से उन्हें भी उस पाप की अनुमोदना का फल लगता है । ५५
इनकी विशेष जानकारी के लिए मूलाचार मूलतः पठनीय है। ५३
मुनिराज के भेद-प्रभेदों से हमें उनकी अभ्यन्तर वीतराग परिणति के साथ-साथ उनकी बहिरंग परिणति की अनेक विशेषताओं का परिज्ञान होता है, जिससे हमें सच्चे मुनियों के प्रति विशेष भक्ति का भाव जागृत होता है, मुनिधर्म अंगीकार करने की प्रेरणा प्राप्त होती है; साथ ही सदोष
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मुनिराज के भेद-प्रभेद
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श्रमणों की स्वेच्छाचारी प्रवृत्तियों का ज्ञान हमें उनसे दूर रहने हेतु तो प्रेरित करता ही है, यह दिशा निर्देश भी करता है कि यदि गृहस्थ श्रमणधर्म अंगीकार करे तो उपर्युक्त बुराइयों से बचना होगा।
ॐ नमः ।
श्रोता ने साधु परमेष्ठी की विशेषताओं के साथ द्रव्यलिंगियों के भेदप्रभेद, उनके गुण-दोष तो जाने ही, साथ ही भावलिंगी मुनिराजों में भी अनेक प्रकार होते हैं, यह जानकर सभी श्रोता मंत्रमुग्ध थे । उन्होंने ऐसे प्रवच्च पहली बार द्दी सुने थे।
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३. भावपाहुड़, गाथा ५९ ५. मूलाचारवृत्ति, १०/११० ७. भावपाहुड़, गाथा- ७४ ९. भगवती आराधना, ७७० ११. राजवार्तिक, ९/४६
१३. समयसार, ४०८-४१० १५. भावपाहुड़, ७२
१७. योगसार, गाथा ५
१९. समयसार, तात्पर्यवृत्ति, ४१४ २१. सूत्रपाहुड़, गाथा- २३ २३. समयसार, तात्पर्यवृत्ति, ४१४ २५. मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३१३ २७. मोक्षमार्गप्रकाशक, २४७-४८ २९. समयसार, गाथा ४११
३१. नियमसार, गाथा ७५
३३. धवला, ८/१,१,१/५१/१ ३५. प्रवचनसार, ९१, २६४, २७१ ३७. मोक्षपाहुड़, गाथा ९७
३९. धवला १/१,१,१/५१/२ ४१. भावपाहुड़, ७८/२२९/११ ४३. लिंगपाहुड, गाथा ३ - २० ४५. जैनेन्द्र सिद्धान्त ४/४०५-४०६ ४७. प्रवचनसार, गाथा २१४ ४९. नयचक्र वृहद, ३३०-३३१ ५१. मूलाचार, गाथा १००३ १००४ ५३. मूलाचार, ७/१५-१६ ५५. दर्शनपाहुड़, गाथा १३
२. मूलाचारवृत्ति, १०/११० ४. पद्मनन्दि पंचविंशतिका, ४१
६. भावपाहुड़, २, ६, ७, ४८, ५४, ५५
८. भावपाहुड़, गाथा १००
१०. रयणसार, गाथा ८७
१२. धवला १/१७७ १४. मूलाचार, ९०० १६. समाधिशतक, श्लोक ८ १८. भावपाहुड़, गाथा ९० २०. मोक्षमार्गप्रकाशक, ९ / ४६२ २२. सूत्रपाहुड़, गाथा १० २४. परमात्मप्रकाश टीका २/५२ २६. मोक्षमार्गप्रकाशक ७ / २४७ २८. समयसार, ४१०-४११ ३०. प्रवचनसार गाथा २४१
३२. मूलाचार, गाथा १०००
३४. पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध, ६६८-६७४
३६. रयणसार, गाथा १२७ ३८. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, ४/४०६ ४०. तत्त्वार्थसार, ९/५
४२. प्रवचनसार, गाथा २४१
४४. पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध, गाथा ६५७ ४६. रयणसार, ११, ९९
४८. श्लोक २१४
५०. प्रवचनसार, गाथा ११ की टीका ५२. गाथा-७१
५४. मूलाचार प्रदीप, गाथा १६६-१७८