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चलते फिरते सिद्धों से गुरु
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भोजन करना वर्जनीय है।
'स्वच्छन्द व एकल विहार करना इस काल में वर्जित है । ४५१ 'निश्चय मुनि और व्यवहार मुनि ऐसे मुनि दो अलग-अलग व्यक्ति नहीं है। एक ही मुनि में वीतरागता और सरागता की अपेक्षा निश्चय मुनि और व्यवहार मुनि ऐसे दो भेद होते हैं। इन्हीं द्विरूप परिणतियों की अपेक्षा से ही मुनिराज के सराग-वीतराग भेद जिनागम में उपलब्ध हैं।
निश्चय - व्यवहार चर्या का समन्वय - जो मुनिराज सदा तत्त्वविचार में लीन रहते हैं, मोक्षमार्ग ( रत्नत्रय) का आराधन करना जिनका स्वभाव है और जो निरन्तर धर्मकथा में लीन रहते हैं अर्थात् यथा अवकाश रत्नत्रय की आराधना व धर्मोपदेशादि रूप दोनों प्रकार की क्रियाएँ करते हैं; उन्हें निश्चय मुनि कहते हैं । ४६'
'जो श्रमण अन्तरंग में तो सदा ज्ञान व दर्शन आदि में प्रतिबद्ध रहते हैं और बाह्य में मूलगुणों में प्रयत्नशील होकर विचरण करते हैं, वह परिपूर्ण श्रामण्यवान् है ।४७
निश्चय व्यवहार के समन्वय रूप से मुनिराज की भूमिका में विद्यमान आन्तरिक वीतराग परिणति की अपेक्षा से उन्हें वीतरागी एवं प्रशस्तराग की अपेक्षा से उन्हें ही सरागसंयमी मुनि कहा जाता है। ध्यान रहे, ये सरागवीतराग परिणाम मिश्रभावरूप हैं और वीतरागता की परिपूर्णता तक पाये जाते हैं। वीतरागी और सरागी मुनि दो अलग-अलग व्यक्ति नहीं हैं।
मुनिराज पूर्ण वीतरागी तो होते हैं; परन्तु पूर्ण सरागी अवस्था को मुनि संज्ञा प्राप्त नहीं है।
यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य है कि आत्मा का जितना अंश वीतराग है, उससे संवर - निर्जरा और जितना अंश सराग है, उससे आस्रव-बन्ध है। इस सन्दर्भ में पुरुषार्थसिद्ध्युपाय का निम्न उल्लेख विचारणीय है - 'येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
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मुनिराज के भेद-प्रभेद
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येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।।
आत्मा में जिस अंश में वीतराग चारित्र है, उस अंश में बन्ध नहीं है, तथा जिस अंश में राग है, उस अंश में इसके बन्ध होता है । ४८'
सराग - वीतराग चारित्र का फल दर्शानेवाले ये आगम उल्लेख भी दृष्टव्य है - "जो दर्शनशुद्धि से विशुद्ध है, मूलादि गुणों से संयुक्त है, अशुभराग से रहित हैं तथा व्रत आदि से संयुक्त है; वह सराग श्रमण है। ४९१
'जब यह आत्मा, धर्मपरिणत स्वभाववाला होता हुआ शुद्धोपयोग परिणति को धारण करता है, तब तो विरोधी शक्ति से रहित होने के कारण अपना कार्य करने के लिए समर्थ है - ऐसा चारित्रवान होने से, वह साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करता है और जब वह धर्मपरिणत स्वभाववाला होने पर भी शुभोपयोग परिणति के साथ युक्त होता है; तब जो विरोधी शक्तिसहित होने से स्वकार्य करने में असमर्थ है और कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है - ऐसे चारित्र से युक्त होने से, जैसे अग्नि से गर्म किया हुआ घी किसी मनुष्य पर डाल दिया जावे तो वह उसकी जलन से दुःखी होता है, उसी प्रकार यह स्वर्ग सुख से बन्ध को प्राप्त होता है, इसलिए शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है। ५०"
आशय यह है कि मुनिराज की भूमिका में सराग चारित्ररूप कमजोरी तो हो सकती है, परन्तु उसे उपादेय माननेरूप मिथ्याभ्रान्ति नहीं । कमजोरी की स्थिति में वे सराग संयमी कहे जाएँगे, परन्तु उसे उपादेय मानने की स्थिति में मिथ्याभ्रान्ति के कारण उन्हें भावों में मुनिपना नहीं रहेगा। निक्षेप की अपेक्षा मुनि के चार भेद
निक्षेप की अपेक्षा श्रमणों के चार भेद हैं- १. नाम श्रमण,
२. स्थापना श्रमण, ३. द्रव्य श्रमण और ४. भाव श्रमण।
'इनमें भाव श्रमण ही श्रमण है, क्योंकि शेष श्रमणों को मोक्ष नहीं