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चलते फिरते सिद्धों से गुरु उत्तरगुण, १८ हजार शीलव्रत, २२ परीषहों का जीतना, १३ प्रकार का चारित्र, १२ प्रकार का तप, षटावश्यक, ध्यान व अध्ययन - ये सब संसार के बीज हैं। ३६१
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'बाह्य परिग्रह से रहित होने पर भी मिथ्याभाव के कारण वह परिग्रहरहित नहीं है, उसके कायोत्सर्ग और मौन धारने से क्या साध्य है । २७
'आत्मा को परद्रव्यों का कर्ता माननेवाले भले ही लोकोत्तर हों, श्रमण हों; पर वे लौकिकपने का उल्लंघन नहीं करते। सम्यग्दर्शनयुक्त नग्नरूप को ही निर्ग्रन्थ संज्ञा प्राप्त है । ३८'
वीतरागभावरूप परिणत मुनिराज की भूमिका में प्रवर्तमान व्रतादिकरूप परिणति वाले निश्चय साधु एवं शरीर की नग्न दिगम्बर दशा आदि पराश्रित भावयुक्त व्यवहार साधु नाम से कहे जाते हैं। व्यवहार साधु के स्वरूपदर्शक आगम प्रमाण -
'जो पाँच महाव्रतों आदि २८ मूलगुणों को धारण करते हैं और ८४ लाख उत्तरगुणों का पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी होते हैं । ३९१
'जो सातों तत्त्वों का भेदरूप से श्रद्धान करता है, भेदरूप से उसे जानता है तथा विकल्पात्मक भेद रत्नत्रय की साधना करता है; वह मुनि व्यवहारावलम्बी है । ४०
यद्यपि मुनिराज का मुख्य कर्तव्य तो निजस्वरूप में विश्रान्त रहना ही है, परन्तु जब उपयोग वहाँ स्थिर नहीं रह पाये, तब मुनि की दशा में सहज ही होनेवाले अन्य कर्तव्य इस प्रकार होते हैं- 'मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक निम्नांकित १३ क्रियाओं की भावना करना । जैसे - पंच नमस्कार, षड् आवश्यक, चैत्यालय में प्रवेश करते समय तीन बार 'नि:सही' शब्द का उच्चारण और चैत्यालय से बाहर निकलते समय तीन बार 'असही' शब्द का उच्चारण। अथवा पाँच महाव्रत, पाँच समिति
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मुनिराज के भेद-प्रभेद
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और तीन गुप्ति - यह तेरह प्रकार का चारित्र ही तेरह क्रियाएँ हैं । ४१" 'जो मुनि आहार, उपकरण एवं आवास को शोधकर सेवन नहीं करता है; वह मुनि गृहस्थपने को प्राप्त होता है और लोक में मुनिपने से हीन कहलाता है। जो साधु मैत्री भावरहित है, वह मोक्ष का चाहनेवाला होने पर भी मोक्ष को नहीं पा सकता । ४२१
'जो साधु का लिंग धारण कर गाना गाता है, बाजा बजाता है, तीव्र मान से गर्वित होकर निरन्तर वाद-विवाद करता है तथा भोजन में रसमृद्धि करता है। मायाचारी करता है। आहार के लिए दौड़ता है, उसके निमित्त से कलह करता है, ईर्यापथ शोधे बिना दौड़ते हुए अथवा उछलते हुए चलता है। महिला वर्ग में राग करता है और दूसरों में दोष निकालता है। गृहस्थों व शिष्यों में अति स्नेह रखता है, स्त्रियों पर विश्वास करके उनको दर्शन - ज्ञान - चारित्र प्रदान करता है, उनको सम्यक्त्व बताता है, इत्यादि अनेक प्रकार के दूषण को लगाता है, वह नरक का पात्र है, भावों से विनष्ट हुआ वह पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट है, साधु नहीं है । ४३
'जो मोह से अथवा प्रमाद से जितने काल तक लौकिक क्रिया करता रहता है, वह उतने काल तक आचार्य नहीं है और अन्तरंग में व्रतों से च्युत भी है। ४४"
'शुभोपयोग की क्रियाओं में अधिक वर्तन करना साधु को योग्य नहीं, क्योंकि वैयावृत्त्यादि शुभ कार्य गृहस्थों को प्रधान है और साधुओं को गौण ।
मंत्र, तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक, वशीकरण, उच्चाटन आदि करना; मंत्र सिद्धि, शस्त्र, अंजन सर्प आदि की सिद्धि करना तथा आजीविका करना साधु के लिए वर्जित है।
लौकिकजन, तरुणजन, स्त्री, पशु आदि की संगति करना निषिद्ध है। आर्यिका से भी सात हाथ दूर रहना योग्य है। पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनियों की संगति वर्जनीय है।
मात्रा से अधिक पौष्टिक व गृद्धतापूर्वक, गृहस्थ पर भार डालकर