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________________ १८६ चलते फिरते सिद्धों से गुरु व्यवहारावलम्बी का कथन किया है, वहाँ व्यवहार पंचाचार होने पर भी उसकी हीनता ही प्रगट की है तथा प्रवचनसार में द्रव्यलिंगी को संसारतत्त्व कहा है। द्रव्यलिंगी के जो जप, तप, शील, संयमादि क्रियाएँ पायीं जाती हैं, उन्हें परमात्मप्रकाशादि अन्य शास्त्रों में भी जहाँ-तहाँ अकार्यकारी बतलाया है, सो वहाँ देख लेना ।२६' __ 'सम्यक्त्वरहित द्रव्यलिंग सर्वथा निषेध योग्य है, क्योंकि वह एकमात्र संसार का ही कारण है। लेकिन सम्यक्त्वसहित चौथे-पाँचवें गुणस्थानवाला द्रव्यलिंगी यद्यपि पूर्ण चारित्र से च्युत है, फिर भी सम्यक्त्व और देशचारित्र से युक्त है, अतः अपनी कमजोरी को मानता है और उसे अल्पकाल में ही सच्चा मुनिपना भी होगा - यह भी निश्चित है, अतः सम्यक्त्व सहित द्रव्यलिंग सर्वथा निषेध योग्य नहीं कहा है। द्रव्यलिंग वास्तव में मोक्षमार्ग नहीं है; क्योंकि वह शरीराश्रित होने से परद्रव्य है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है; क्योंकि वह आत्माश्रित होने से स्वद्रव्य है। इसलिए समस्त द्रव्यलिंगों का त्याग करके, दर्शनज्ञान-चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग में आत्मा को लगाना योग्य है ।२८' 'यहाँ मुनि-श्रावक के व्रत छुड़ाने का उपदेश नहीं है, जो केवल द्रव्यलिंग को ही मोक्षमार्ग मानकर वेष धारण करते हैं, उनको द्रव्यलिंग का पक्ष छुड़ाया है, क्योंकि वेषमात्र से मोक्ष नहीं है।' निश्चय-व्यवहार की अपेक्षा मुनिराज के भेद - 'जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग समान हैं, सुख-दुःख समान है, प्रशंसा और निन्दा के प्रति समता है, जिसे लोष्ठ (ढेला) और सुवर्ण समान है तथा जीवन-मरण के प्रति समता है, वह (निश्चय) श्रमण है।३० 'साधु काय व वचन के व्यापार से मुक्त, चतुर्विध आराधना में सदा रत, निर्ग्रन्थ और निर्मोही होते हैं।३१ 'जो निष्परिग्रही व निरारम्भ है, आहार में शुद्धभाव रखता है, एकाकी ध्यान में लीन होता है, सब गुणों से परिपूर्ण है वह श्रमण है ।३२" 'जो अनन्त ज्ञानादिस्वरूप शुद्धात्मा की साधना करते हैं, उन्हें साधु मुनिराज के भेद-प्रभेद कहते हैं।३३ 'जो साधु बोलता नहीं है। हाथ-पाँव आदि के इशारे से कुछ नहीं दर्शाता, मन से भी कुछ चिन्तवन नहीं करता। केवल शुद्धात्मा में लीन रहता हुआ अन्तरंग व बाह्य वाग्व्यापार से रहित निस्तरंग समुद्र की तरह शान्त रहता है। जब वह मोक्षमार्ग के विषय में ही उपदेश नहीं करता है, तब वह लौकिक मार्ग के उपदेशादि कैसे कर सकता है? ऐसे वैराग्य की पराकाष्ठा को प्राप्त होकर अधिक प्रभावशाली हो जाता है। अन्तरंग-बहिरंग मोह की ग्रन्थि को खोलनेवाला यमी होता है। परीषहों व उपसर्गों के द्वारा वह पराजित नहीं होता और कामरूप शत्रु को जीतनेवाला होता है। इत्यादि अनेक प्रकार के गुणों से युक्त साधु ही मोक्ष की प्राप्ति के लिए तत्त्वज्ञानियों के द्वारा नमस्कार किये जाने योग्य है।३४" जैनदर्शन में जहाँ चारित्तं खलु धम्मो' कहकर शुद्ध वीतरागभावरूप चारित्र को धर्म कहा गया है, वहीं सम्यग्दर्शन को 'दसण मूलो धम्मो' कहकर धर्म का मूल कहा गया है। सम्यग्दर्शन की प्रधानता मात्र मुनिधर्म के लिए नहीं, अपितु धर्म के प्रारम्भ के लिए भी है। ___तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन के बिना तो धर्म का प्रारम्भ ही नहीं होता, तब उसकी वृद्धि और पूर्णता की तो सम्भावना ही नहीं है। श्रमणाभासों के आगम प्रमाण - 'जो श्रमणावस्था में भेदसहित नव पदार्थों का यथार्थ श्रद्धा नहीं करता, वह श्रमण नहीं है, उन्हें धर्म का उद्भव नहीं होता। सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी यदि जिनोक्त आत्मप्रधान पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता तो वह श्रमण नहीं है - ऐसा कहा है। भले ही वे द्रव्यलिंगी के रूप में जिनमत में हों, तथापि वे 'वस्तुस्वरूप को अयथार्थतया ग्रहण करते हैं वे आगामी काल में संसार में परिभ्रमण करेंगे ।३५' 'बिना सम्यग्दर्शन के ५ महाव्रत आदि २८ मूलगुण, ८४ लाख 94
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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