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________________ १८४ चलते फिरते सिद्धों से गुरु छठवें से नीचे के गुणस्थानों की अपेक्षा द्रव्यलिंग के चार भेद हैं - (१) प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि (२) चतुर्थगुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनि और (३) पंचमगुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनि तथा (४) छठवें-सातवें गुणस्थानवर्ती भावलिंग सहित द्रव्यलिंगी मुनि । उक्त भेदों में चौथे-पाँचवें गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनि यद्यपि मोक्षमार्गी हैं, तथापि वे भावलिंगी मुनि नहीं हैं और मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि भी कदाचित् अपनी निर्दोष चर्या के कारण पूजनीय होने पर भी प्रशंसनीय नहीं हैं। वे तो अविरत सम्यग्दृष्टि से भी हीन कहे गये हैं। मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी की पहचान - जिनका बाह्य वेष तो नग्न दिगम्बर होता है; परन्तु जो अपनी स्वेच्छाचारी प्रवृत्तियों से जिनशासन को कलंकित करते हैं, उन्हें आगम में पापश्रमण, नटश्रमण, पार्श्वस्थ, आदि नामों से तिरस्कृत किया गया है, वे कदापि पूजनीय नहीं है। मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी, सम्यक्दृष्टि गृहस्थ से भी हीन हैं - इस सम्बन्ध में रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है - 'गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोही नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ।।३३।। दर्शनमोहरहित गृहस्थ तो मोक्षमार्ग में स्थित है, किन्तु मोहवान् मिथ्यादृष्टि मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। इसकारण मोही मुनि से निर्मोही सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है।' इसी सन्दर्भ में आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी द्वारा प्रस्तुत शंका समाधान भी दृष्टव्य है, जो इस प्रकार है - “यहाँ कोई कहे कि असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टि के कषायों की प्रवृत्ति विशेष है और मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि को थोड़ी है; इसी से असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टि तो सोलहवें स्वर्गपर्यंत ही जाते हैं और मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी अन्तिम ग्रैवेयकपर्यन्त जाता है। इसलिए भावलिंगी मुनि से तो द्रव्यलिंगी को हीन मुनिराज के भेद-प्रभेद कहो, उसे असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टि से हीन कैसे कहा जाये? समाधान - असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टि के कषायों की प्रवृत्ति तो है; परन्तु श्रद्धान में किसी भी कषाय के करने का अभिप्राय नहीं है तथा द्रव्यलिंगी के शुभकषाय करने का अभिप्राय पाया जाता है, श्रद्धान में उन्हें भला जानता है; इसलिए श्रद्धान की अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टि से भी इसके अधिक कषाय है। द्रव्यलिंगी के योगों की प्रवृत्ति शुभरूप बहुत होती है और अघातिकर्मों में पुण्य-पापबन्ध का विशेष शुभ-अशुभ योगों के अनुसार होता है, इसलिए वह अन्तिम ग्रैवेयकपर्यन्त पहुँचता है; परन्तु वह कुछ कार्यकारी नहीं है; क्योंकि अघातियाकर्म आत्मगुण के घातक नहीं हैं, उनके उदय से उच्च-नीचपद प्राप्त किये तो क्या हुआ? वे तो बाह्य संयोगमात्र संसारदशा के स्वांग हैं। आप तो आत्मा है; इसलिए आत्मगुण के घातक जो घातियाकर्म हैं, उनकी हीनता ही कार्यकारी है। __ घातियाकर्मों का बन्ध बाह्यप्रवृत्ति के अनुसार नहीं है, अन्तरंग कषायशक्ति के अनुसार है; इसीलिए द्रव्यलिंगी की अपेक्षा असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टि के घातिकर्मों का बन्ध थोड़ा है। द्रव्यलिंगी के तो सर्व घातिकर्मों का बन्ध बहुत स्थिति-अनुभाग सहित होता है और असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धी आदि कर्मों का तो बन्ध है ही नहीं, अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान कषाय चौकड़ी का बन्ध होता है, वह अल्पस्थिति-अनुभाग सहित होता है। तथा द्रव्यलिंगी के कदापि गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती, सम्यग्दृष्टि के कदाचित् होती है और देश व सकलसंयम होने पर निरन्तर होती है। इसी से यह मोक्षमार्गी हुआ है। इसलिए द्रव्यलिंगी मुनि को शास्त्र में असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टि से हीन कहा है। समयसार शास्त्र में द्रव्यलिंगी मुनि की हीनता गाथा, टीका और कलशों में प्रगट की है तथा पंचास्तिकाय टीका में जहाँ केवल --. विशेष नोट : मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ-२४७ के इस उद्धरण में ही गाथा नम्बर नहीं है। 93
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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