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मुनिराज के भेद-प्रभेद
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चलते फिरते सिद्धों से गुरु प्राप्त नहीं करते हैं, उन्हें पुलाक मुनि कहते हैं। पुलाक का अर्थ है धान अर्थात् छिलकासहित चावल । यहाँ अशुद्धता के मिलाप के कारण साधु को पुलाक कहा है।
२. बकुश मुनि - जो निर्ग्रन्थ होते हैं, मूलगुणों का अखण्ड पालन करते हैं, किन्तु शरीर-पीछी-कमण्डलु-पुस्तकादि को संवारने-सजाने में जिनका परिणाम रहता है, धर्म तथा अपने यश-प्रभाव को चाहता है, उसे सांसारिक प्रयोजन के लिए नहीं; अपितु संघ और धर्म की प्रभावना के लिए ऋद्धि की इच्छा होती है, अपनी साता बनी रहने को भला जानता है, किन्तु परमार्थ से तो यह भी परिग्रह ही है। संघ और उपकरण का हर्ष होना छेद है, उस छेद से मिश्रित आचरणसहित होने से बकुश (चितकबरा) कहा गया है।
बकुश साधु दो प्रकार के होते हैं - उपकरण बकुश और शरीर बकुश । जो सुन्दर सजे हुए पीछी-कमंडलु उपकरणों की आकांक्षा करते हैं, वे उपकरण बकुश साधु हैं तथा जो शरीर का संस्कार करते हैं, वे शरीर बकुश हैं।
३. कुशील मुनि - कुशील के दो भेद हैं - एक - प्रतिसेवना कुशील और दूसरा - कषाय कुशील । प्रति सेवना मुनि वे हैं - जिनके उपकरण तथा शरीरादि से भिन्नता या विरक्तता नहीं हुई है; किन्तु मूलगुणोंउत्तरगुणों की परिपूर्णता है, परन्तु कभी-कभी किसी तरह से उत्तरगुणों में विराधना भी हो जाती है।
कषाय कुशील वे हैं - जिन्होंने अन्य कषायों के उदय को तो वश में किया है, किन्तु जो संज्वलन कषाय के उदय के आधीन हैं।
४. निर्ग्रन्थ मुनि - जिनके अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानावरण कषायरूप मोहकर्म के उदय का तो अभाव हुआ है; किन्तु संज्वलन कषाय का मंद उदय है, जैसे जल में लाठी डालने से रेखा-लहर आती है, किन्तु शीघ्र ही विलीन हो जाती है, उसीप्रकार
प्रदेशों का तथा उपयोग का मन्द-मन्द चलना होता है, किन्तु प्रगट अनुभव में नहीं आता है। इनका ११वाँ और १२वाँ गुणस्थान होता है।
ग्यारहवें गुणस्थान में तो चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम हुआ है, अत: ऊपर चढ़ ही नहीं सकता है, गिरता ही है। यदि वह १० वें गुणस्थान में आकर मरण करे तो अहमिन्द्रों में जाकर उत्पन्न होता है।
बारहवें गुणस्थान में क्षपकश्रेणीवाला तो अंतर्मुहूर्त के बाद केवलज्ञानकेवलदर्शन उत्पन्न कर केवली हो जाता है, वह निर्ग्रन्थ मुनि है।
५. स्नातक - जो सम्पूर्ण घातिकर्मों का नाश करके केवली जिन हुए, उन्हें स्नातक कहते हैं। ____ उक्त पाँचों ही प्रकार के मुनि यद्यपि वस्त्र, आभरण, आयुध, गृह, कुटुम्ब, धान्यादि का अभाव होने से पूर्ण निर्ग्रन्थ ही हैं, तथापि मोहनीयकर्म का सद्भाव होने से पुलाक, बकुश, कुशील साधुओं को अन्तर से पूर्ण निर्ग्रन्थपना नहीं है। लेकिन व्यवहारनय से सभी को निर्ग्रन्थ ही कहते हैं। परमार्थ से तो समस्त मोहनीयकर्म का अभाव होने पर क्षीणकषायी बारहवें गुणस्थानवर्ती के ही निर्ग्रन्थपना होता है।
राजवार्तिक में इस संबंध में शंका करते हुए कहा है कि - "जैसे चारित्रगत भेदों के कारण गृहस्थ को निर्ग्रन्थ संज्ञा नहीं मिलती है, उसीप्रकार पुलाकादि मुनियों में भी उत्कृष्ट-मध्यम आदि चारित्र के भेद से निर्ग्रन्थपना नहीं बनता है, फिर उन्हें निर्ग्रन्थ कैसे कहते हैं ?
समाधान यह किया है कि जैसे ब्राह्मण जाति में भी आचारअध्ययनादि के भेद से भिन्नता है तो भी ब्राह्मणपने की अपेक्षा से सभी ब्राह्मण हैं, उसीप्रकार यहाँ भी जानना।
तत्त्वार्थसूत्र में आये १. संयम, २. श्रुत, ३. प्रतिसेवना, ४. तीर्थ, ५. लिंग, ६. लेश्या, ७. उपपाद और ८. स्थान - इन आठ अनुयोगों द्वारा पुलाकादि मुनियों के कौन-कौनसे अनुयोग होते हैं? यह कहते हैं -
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