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मुनिराज के भेद-प्रभेद
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चलते फिरते सिद्धों से गुरु संयम - पुलाक, बकुश, और प्रतिसेवना कुशील साधुओं के सामायिक और छेदोपस्थापना संयम होते हैं। कषाय कुशील साधु के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय संयम होते हैं। निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक यथाख्यात संयम ही होता है।
श्रुत - पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील - साधुओं के उत्कृष्टतम ज्ञान दशपूर्व का होता है तथा कषायकुशील और निर्ग्रन्थ साधु चौदह पूर्व के धारी होते हैं, जघन्यज्ञान की अपेक्षा पुलाक मुनि को (आचारवस्तु) ५ समिति, ३ गुप्ति का ज्ञान होता है; बकुश, कुशील तथा निर्ग्रन्थों के जघन्यज्ञान अष्ट प्रवचनमाता, (५ समिति, ३ गुप्ति) का ज्ञान होता है और स्नातक तो केवली होते ही हैं।
प्रतिसेवना - प्रतिसेवना का अर्थ विराधना है। पुलाक मुनि के पाँच महाव्रतों में से किसी एक व्रत में परवशता से विराधना हो जाती है। यद्यपि महाव्रतों में मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से पाँच पापों का त्याग होता है; तथापि अपनी सामर्थ्य की हीनता से पुलाक के किसी भेद में दोष लग जाता है।
तीर्थ - सभी तीर्थंकरों के धर्मशासन में पाँचों प्रकार के मुनि होते
है, कोई वैयावृत्य करता है, कोई श्रेणी आरोहण करता है, कोई केवलज्ञान उत्पन्न करता है - इत्यादि प्रवृत्ति से बाह्यलिंग में अन्तर होता है। यथाजातरूप नग्न दिगम्बरपना सभी के है, इसमें भेद नहीं है। __ लेश्या - पुलाक, बकुश व प्रतिसेवना कुशील मुनियों के अंतिम तीनों शुभ लेश्याएँ ही होती हैं, इनके बाह्य प्रवृत्ति का अवलम्बन नहीं रहता है, वे अपने मुनिपने के साधन में ही लीन रहते हैं। कषाय कुशील के कापोतादि चार लेश्याएँ होती है। अन्य आचार्यों के अभिप्राय से इनके तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक शुक्ल लेश्या ही होती है। अयोगी जिन लेश्यारहित होते हैं। ___ उपपाद - पुलाक मुनि का उत्कृष्ट उपपाद जन्म सहस्त्रार नामक बारहवें स्वर्ग में १८ सागर की उत्कृष्ट आयु के धारक देवों में होता है। बकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि का उत्कृष्ट देवों में होता है। कषाय कुशील और ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानवाले निर्ग्रन्थ मुनियों का उत्कृष्ट उपपाद जन्म ३३ सागर की आयुवाले सर्वार्थसिद्धि के देवों में होता है। इन सभी पुलकादि ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती तक मुनियों का जघन्य उपपाद दो सागर की आयुवाले सौधर्म-ईशान देवों में होता है। बारहवें गुणस्थानवर्ती निर्ग्रन्थ एवं स्नातक को तो निर्वाण ही होता है। ___ स्थान - साधुओं के कषायनिमित्तिक असंख्यात संयमस्थान होते हैं। पुलाक और कषाय कुशील के सबसे जघन्य लब्धिस्थान होते हैं। वे दोनों असंख्यात स्थानों तक एक साथ जाते हैं। द्रव्यलिंग-भावलिंग का स्वरूप
जो श्रमण द्रव्यलिंगसहित भावलिंग को धारण करते हैं, वे भाव की प्रधानता से भावलिंगी श्रमण कहलाते हैं तथा जो श्रमण भावलिंग रहित मात्र द्रव्यलिंग धारण करते हैं, वह द्रव्यलिंगी श्रमण कहलाते हैं। __ आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने स्वयं भावलिंगी साधु का वर्णन करते हुए लिखा है - “जो देहादि परिग्रह और मानकषाय से रहित हैं एवं अपनी
लिंग - लिंग के दो भेद हैं - १. द्रव्यलिंग और २. भावलिंग। पुलाक, बकुश आदि पाँचों प्रकार के मुनि भावलिंगी ही होते हैं; क्योंकि वे सम्यग्दर्शनसहित संयम पालने में तत्पर-सावधान होते हैं। शरीर की ऊँचाई, रंग व पीछी आदि की अपेक्षा बाह्यलिंग में उनमें अन्तर होता है। कोई आहार करता है, कोई अनशनादि तप करता है, कोई उपदेश करता है, कोई अध्ययन करता है, कोई ध्यान करता है, कोई तीर्थों में विहार करता है, किसी को कोई दोष लगता है, कोई प्रायश्चित लेता है, कोई दोष नहीं लगने देता है, कोई आचार्य है, कोई उपाध्याय है, कोई निर्यापक
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