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________________ १७४ चलते फिरते सिद्धों से गुरु का आप लोगों को जितना लाभ लेना चाहिए था, नहीं ले पाये। इसमें मुनि संघ की ओर से कोई कमी नहीं रही। मुनिसंघ ने मेरे निर्देशानुसार धर्ममय वातावरण बनाकर तत्त्वज्ञान का उपदेश देने में कोई कसर नहीं छोड़ी; परन्तु आप लोग विशेषकर महिलायें प्रवचनों के समय भी मुनिसंघ के लिए आहार बनाने में उलझी रहीं, जो सर्वथा अनुचित था। इस कारण भी मुनियों का उद्दिष्ट आहार बदनाम होता है। मुनियों के आहार के निमित्त किसी को भी धार्मिक लाभ से वंचित नहीं रहना चाहिए? अस्तु " इस व्यक्तिगत उद्बोधन के उपरान्त आचार्यश्री ने पूर्व नियोजित प्रवचनों की श्रृंखला में आज मुनियों के भेद-प्रभेदों की चर्चा प्रारंभ की। "देखो, उपयोग की अपेक्षा मुनिराज के दो भेद हैं - १. शुद्धोपयोगी मुनि और २. शुभोपयोगी मुनि । शुद्धोपयोगी मुनि निरास्रव हैं और शुभोपयोगी सास्रव है। शुद्धोपयोगी श्रमण वे हैं जो समस्त परद्रव्य से निवृत्ति करके, सुविशुद्धदर्शन-ज्ञान स्वभाववाले आत्मतत्त्व में आरूढ हैं तथा जो श्रामण्य परिणति की प्रतिज्ञा करके भी कषाय अंश के जीवित होने से समस्त परद्रव्यों की निवृत्ति करके सुविशुद्ध दर्शन-ज्ञान स्वभाववाले आत्मतत्त्व में आरोहण करने में असमर्थ हैं, अतः प्रमत्त गुणस्थान में रह रहे हैं। संज्वलन चौकड़ी कषाय के कारण जिनकी शक्ति अभी कुण्ठित है, परन्तु शुद्धोपयोग भूमिका में जाने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित रहते हैं। शुभोपयोगी मुनि का लक्षण बताते हुए प्रवचनसार गाथा २४६ में लिखा है - 'जिस श्रामण्य में अरहन्तादिक के प्रति भक्ति तथा प्रवचन करते हुए जिज्ञासु जीवों के प्रति वात्सल्य पाया जाता है, उसकी मुनिचर्या शुभोपयोगी चारित्ररूप है। श्रमणों के प्रति वन्दन-नमस्कार सहित अभ्युत्थान और अनुगमनरूप प्रवृत्ति करने तथा उनका श्रम दूर करने आदि की रागचर्या शुभोपयोगी मुनि को निन्दित नहीं है। मुनिराज के भेद-प्रभेद वास्तव में ये भेद उपयोग की अपेक्षा हैं, व्यक्ति की अपेक्षा नहीं। वे ही मुनिराज जिस समय शुद्धोपयोग से युक्त हैं, उस समय उन्हें शुद्धोपयोगी संज्ञा है और जिस समय वे ही मुनि शुभोपयोग से युक्त हैं, उस समय उन्हें ही शुभोपयोगी संज्ञा है। प्रवचनसार गाथा २४५ की टीका में उल्लिखित शुभोपयोग के साथ धर्म का एकार्थसमवाय' शब्द भी ध्यान देने योग्य है । तात्पर्य यह है कि वे श्रमण अंतरंग में तो मुनिपद के योग्य शुद्धोपयोग और शुद्धपरिणित से प्रवर्तमान हैं, तथापि सम्पूर्णरूप से आत्मस्वरूप में स्थिरता के अभाव में वे ही श्रमण शुभोपयोगी कहलाते हैं। 'जो श्रमण शुभोपयोगी हैं, वे सदा शुभोपयोगी ही रहें, ऐसा नहीं है, कभी-कभी शुद्धोपयोगी भी होते हैं; किन्तु शुभोपयोग की प्रधानता की दृष्टि से वे शुभोपयोगी कहलाते हैं। छठवें-सातवें गुणस्थानवर्ती एक ही मुनिराज के कभी शुद्धोपयोग होता है तथा कभी शुभोपयोग होता है। शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी - ये भेद धर्म से परिणमित मुनिराजों के हैं। जो नग्न दिगम्बर हैं, अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं, प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में शुद्धोपयोग में जाते हैं - ऐसे मुनिराज जब सातवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग में जाते हैं, तब शुद्धोपयोगी हैं तथा जब छठवें गुणस्थान में आते हैं, तब शुभोपयोगी हैं। __यह बात बहुत स्पष्ट है कि चाहे वे शुद्धोपयोग में हो या शुभोपयोग में तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप निर्मल परिणति सदा विद्यमान होने से वे धर्मात्मा ही हैं, परम पूज्य ही है।" मुनियों के पाँच भेद ___आचार्यश्री ने आगे कहा - "मुनियों के पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक - ऐसे पाँच भेद भी तत्त्वार्थसूत्र में कहे हैं। १. पुलाक मुनि - जो उत्तरगुणों की भावना से तो रहित ही होते हैं, मूलगुणों के व्रतों में भी किसी काल व किसी क्षेत्र में परिपूर्णता को 88
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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